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[ १. ४८
- धर्मरत्नाकरः - 48) अभ्यङ्गाय सदाश्रुपातकुशलः स्नेहो ऽपि संजायते
देहस्यैव निघर्षणाय विहितं पापात् खलोद्वर्तनम् । पङ्कः स्नानविशुद्धये ऽपि कुसुमं गन्धाय शीर्षे तृणं
भाले कर्करघर्षजं च तिलकं तन्नर्मणे निर्मितम् ॥ ४८ 49) सुखोष्णभोज्यैः शयनैः पराध्यैः
स्तनोपपीडं च रतैः प्रियाणाम् । सदंशुकैः पुण्यवतां प्रतीत
मुपायनैरर्चयतीवं शीतम् ॥ ४९ 50) चन्द्रः पल्लवसंस्तराः सुमनसो दिव्या प्रियासंनिधिः
श्रीखण्डं चलचामरोत्थपवनः सन्माधवीमण्डपः । धारामन्दिरमुज्झदम्बु परितो हारा हिमांशुप्रभा ग्रीष्मस्फारिजगत्पतापमपि तं भिन्दन्ति धन्यस्य ते ॥ ५०
तथा मानो स्वर्ग में उत्पन्न हुये ऐसे मालती आदिक वेलियों के पुष्पसमूह प्राप्त होते हैं ॥४७॥
इस के विपरीत जो पुण्यहीन हैं उन्हें अभ्यंगस्नान के लिये स्नेह (तेल) तो मिलता नहीं है, तब उसके अभाव में उनकी आँखों से शोक का जो अश्रुपात होता है वही उनके अभ्यंग स्नान के लिये स्नेह है; पाप से उनके देह का जो घर्षण होता है वही उनका खली का उद्वर्तन होता है, उनके अंग में जो कीचड लगता है वह उनका उबटन है और मस्तक पर जो वे तृण भार धारण करते हैं वही उनका गंध है तथा भालप्रदेश में कंकड का घर्षण होने से जो चिन्ह प्रकट होता है वही तिलक है। ये सब प्रकार पाप ने दीनों का उपहास करने के लिये निर्मित किये हैं ॥४८॥
- संतुष्ट शीतकाल मानो पुण्यशाली पुरुषों की, सुखप्रद कुछ उष्ण (ताजे) भोज्य पदार्थ, बहुमूल्य शय्याएं, स्तनों को मदित करते हुये किये गये प्रिय स्त्रियों के सम्भोग और उत्तम वस्त्र; इन उपहारों के द्वारा पूजा ही करता है, ऐसा प्रतीत होता है ॥४९॥
कपूर, कोमल पत्तों की शय्या, दिव्य पुष्प, स्त्री का सान्निध्य, चन्दन, चंचल चामरों की पवन, उत्तम माधवी लताओं का मण्डप, चारों ओर पानी फेंकनेवाला धारागृह तथा चंद्र की कांति को धारण करनेवाले हार ये भाग्यशाली के उत्तमोत्तम पदार्थ -जिसका कि प्रताप लोक में सर्वत्र फैला हुआ है ऐसे पराक्रमी ग्रीष्मकाल को भी नष्ट किया करते हैं ॥५०॥
४८) 1 उद्वर्तनाय. 2 तस्य पापिन: क्रीडायै, पापिजनभोगाय । ४९) 1 कथंचित् उष्ण . 2 उत्तमैः. 3 प्राभूतैः. 4 शीतं विनयं करोति। ५०) 1 कर्पूरः. 2 चन्द्रस्य. 3 ग्रीष्मम् . 4 पुण्यवत:. 5 चन्द्रादयः ।