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________________ - धर्मरत्नाकरः - [ १. ३३33) धराधरैर्वारिधिभिः समग्रामभ्युद्धरन्त्येव धरां कृतार्थाः'। प्रत्यंशुभिस्तूलमिवापरे स्युस्तृणस्य कुब्जीकरणे ऽसमर्थाः ॥३३ 34) स्याद् द्वात्रिंशत्सहस्रः प्रणयविनतिभिः सेवितो भूपतीनां त्रिस्तावद्भिः सुरस्त्रीविसरविजयिनां कान्तकान्ताजनानाम् । रत्नैःिसप्तसंख्यैरनिधनसुधनैः संनिधानैर्निधान मानां मूर्धवर्ती मणिरिव सुकृतानिर्मिताच्चक्रवर्ती ॥ ३४ 35) भूपा व्रजन्ति चलचामरवीज्यमानाः श्वेतातपत्रधवलीकृतविश्वदेशाः। लीला धुनायकभवां च विलम्बमाना जम्पानयानचतुरङ्गचमूवृतास्ते ॥ ३५ 36) स्रवत्स्वेदेस्रवन्तीभिरभितो ऽप्यचला इव । ___ अनिला इव वेगेन धावन्त्यन्ये तदग्रतः ॥ ३६ था, इसी प्रकार पृथापुत्र अर्जुन ने जो लवणसमुद्र को शीघ्र पार किया था; उन सब को समद्धिशाली इस त्रिभुवन में सद्धर्म रूप चिन्तामणि का ही प्रभाव समझना चाहिये ॥३२॥ सुकृती-पुण्यशाली-पुरुष पर्वत और समुद्रों सहित समस्त पृथ्वी को प्रत्यंशुओंके साथ रुईके समान उठाया करते हैं,परन्तु पुण्यहीन जन तिनके के भी मोडने में समर्थ नहीं होते हैं।।३३।। स्नेहसे नम्र हुये बत्तीस हजार राजाओंसे सेवित, देवांगनाओं के समूह को जीतनेवाली छियानबे हजार सुन्दर स्त्रियों से आराधित, तथा चौदह रत्नों एवं अक्षय उत्तम धन को धारण करनेवाली नौ निधियों से सम्पन्न जो चक्रवर्ती मनुष्यों के मस्तक पर स्थित चूडामणि के समान होता है वह भी पूर्वजन्म में किये हुये सुधर्म के प्रभावसे ही होता है ।।३४॥ दरते हुये चंचल चामरों से सुशोभित और श्वेत छत्र से समस्त पृथिवीप्रदेशों को धवलित (श्वेत) करनेवाले वे राजा लोग जो इन्द्र जैसी लीला का आलम्बन लेते हुये सुसज्जित पालकी व चतुरंग सेना से - हाथी, घोडा, रथ और पादचारी सैन्य से - वेष्टित होकर गमन किया करते हैं वह सब धर्मका ही प्रभाव है ।।३५॥ इसके विपरीत जो पापी हैं वे उनके आगे वायुके समान वेगसे दौडते है । उस समय ३३) 1 परिपूर्णार्थाः. 2 प्रतिकिरणैः. 3 पापाः । ३४) 1 ९६००० द्वात्रिंशत्सहस्रत्रिगुणीकृतानां स्त्रीणाम, 2 कान्ति. 3 विनाशरहितैः परिपूर्ण:. 4 परिपूर्ण: । ३५) । समस्तप्रदेशाः. 2 इन्द्रलीलाम । ३६) 1 प्रस्वेदनदी वहन सन् अचल: पर्वत इव.2 पर्वता इव. 3 पवन इव. 4पापिनः ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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