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-१. ३२]
- पुण्यपापफलवर्णनम् - 30) तासां पश्यन्ति रूपं कथमपि न परे किंतु ते यान्ति योगं
शुन्या वा रामयामा सकृदपि वचने निर्विराम भषन्त्या। चामुण्डायाः स्वरूपं निजतनुगुणतो वारवार हसन्त्या
मन्ये निःसंश्रयस्यांहसं इव कृतया वेधसा वासहेतोः ॥ ३० 31) यत्कोटिसंख्यरिपुदारणसंख्यमध्ये
ऽसंख्यातवारमुपलब्धजया भवन्ति । यच्चाज्ञयैव परिपान्ति नरा जगन्ति
जेगीयते कृतिजनैस्तदिदं सुधर्मात् ॥ ३१ ॥ 32) चक्री बाहुबलीश्वरेण तुलितो बाहुद्वयेनाहवे
कैलासो ऽपि च रावणेन जयिना गोवर्धनो विष्णुना। यच्चापि प्रसभं पृथातन भुवा तूर्ण च तीर्णो ऽर्णव
स्तद्विस्फूजितमूजित त्रिभुवने सद्धमेचिन्तामणेः ।। ३२ पुण्यपुरुष की मानो सौभाग्य रत्नमाला के समान होती है, वह सौन्दर्य की मर्यादारूप स्त्री ऊँचे पर्वत से निकलनेवाली नदी के समान सुखदायक होती है, वह शृंगाररूप वृक्षकी मंजरी जैसी होती है, वह रतिसुख की निधि व उत्तम कान्ति की पिटारी है । जिसकी दृष्टि से ही कामी मूछित हो जाता है, ऐसी वह स्त्री पूर्व जन्म में किये हुये पुण्य के प्रभावसे ही प्राप्त होती है ॥२९॥
अन्य जन किसी भी प्रकारसे भाग्यहीन स्त्रियों का रूप नहीं देखना चाहते,परन्तु कितने ही पापियों को ऐसी स्त्रियों का योग प्राप्त होता है। यदि उससे एक बार भी भाषण किया जाता है तो वह निरन्तर कुत्तीके समान भौंका करती है । वह अपने शरीर गुणके प्रभावसे चामुण्डासी प्रतीत होती है । वह बार बार हसती है । मानो ब्रह्मदेवने निराश्रय पापको रहने के लिये ही उसे बनाया है ॥३०॥
जहाँ करोडों शत्रुओं का विदारण किया जाता है ऐसे भयानक युद्ध में पुण्यवान पुरुष जो असंख्यात बार जयशाली होते हैं तथा आज्ञामात्रसे जो जगत्का संरक्षण करते हैं; वह सब उस उत्तम धर्म का ही प्रभाव है, जो विद्वान् जनों के द्वारा वारंवार गाया जाता है ॥३१॥
युद्ध में बाहुबलि कुमारने अपने दो बाहुओं के द्वारा जो भरत चक्रवर्ती को उठाया था तथा रावणने जो कैलास पर्वत को और जयशाली विष्णु (कृष्ण)ने जो गोवर्धन पर्वत को उठाया
३०) 1 सुन्दरीणां निजितदेवाङगनानाम्. 2 पापिनः. 3 कुक्कुर्या कुक्कुरभार्यया. 4 सार्धम्. 5 सत्सहस्रवार, वारंवारमित्यर्थः . 6 पापस्य. 7 ब्रह्मणा। ३१) 1 संग्राममध्ये. 2 परिरक्षन्ति । ३२)1 संग्रामे. 2 हठात्कारेण.3 अर्जुनेन भुजाभ्यां समुद्रस्तरितः यदा द्रौपदी घातकीखण्डे शत्रुणा हृता. 4 शीघ्र नीता.5समुद्र.6उत्कटम्।