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________________ - धर्मरत्नाकरः - [१. २७27) रूपिण्य एव सुकृतेन मदालसाश्च यूनां मनांसि रमयन्त्य उदग्रकान्तेः । भार्या भवन्ति भुवने कृतिनां सुमित्रा । गौर्यः श्रियो ऽपि रतयो ऽप्युचितैर्विलासैः ॥ २७ 28) जायत प्रमिताक्षरा वचसि सा सा चारुहासिन्यपि सा स्रग्विण्यपि पावणेन्दुवदना सा मञ्जुभाषिण्यपि । सा वंशस्थतया हरेत ललना चेतः सतां पश्यता माश्चर्य तनुमध्यंया न च तया केषां समुत्पाद्यते ॥ २८ 29) कर्परोत्थशलाकिका नयनयोः सोभाग्यरत्नावली उद्यच्छैलतरङ्गिणीसुख पुरी रूपावधिः कामिनी । शङ्गारद्रुममञ्जरी रतिनिधिः सत्कान्तिमषिका कामी मूर्च्छति यदृशैवं विहितात् सा जायते पुण्यतः ॥ २९ लोक में पुण्यशाली पुरुषों के समुचित हावभावादि विलास से संयुक्त सुमित्रा, गौरी लक्ष्मी और रति जैसी स्त्रियाँ हुआ करती हैं; जो अतिशय सुंदर और मद से आलसयुक्त होकर अपनी उत्कृष्ट कान्ति से युवावस्था में उनके मन को रमाया करती हैं ॥२७॥ पुण्यशाली जन के जो स्त्री होती है वह संभाषण में प्रमिताक्षरा-मितभाषिणी-होकर प्रमिताक्षरा नामक वृत्त के समान, चारुहासिनी-मधुर हास्य से संयुक्त-होकर चारुहासिनी नामक वृत्त के समान, स्रग्विणी-मालासे विभूषित-होकर स्रग्विणी छन्द के समान, पार्वणेन्दुवदना-पूर्णमासी के चन्द्रमा के समान आल्हादजनक सुन्दर मुख से संयुक्त-होकर इन्दुवदना नामक वृत्त के समान, मंजुभाषिणी होकर-मधुर व मृदु भाषण करती हुयी-मंजुभाषिणी नामक छन्द के समान तथा वंशस्थता से-कुलीनता से-वंशस्थ वृत्त के समान देखनेवाले सत्पुरुषों के मन को हरा करती है। ठीक है-वह तनुमध्या-कटिभाग में कृश-होकर तनुमध्या नामक छन्दके समान किनको आश्चर्य नहीं उत्पन्न किया करती है ? अर्थात् जिस प्रकार तनुमध्या छंद सुनने व पढनेवाले सज्जनों को आश्चर्य उत्पन्न किया करता है उसी प्रकार वह कृशोदरी कामिनी भी देखनेवाले गृहस्थों को आश्चर्य उत्पन्न किया करती है॥२८॥ वह पुण्यवान् पुरुष की स्त्री आँखों को कर्पूरशलाका के समान आनन्ददायक होती है,वह २७) 1 तरुणानां वा वृद्धमुनीनाम् . 2 P दमयन्ति, D'दमयन्त्य. 3 प्रधानमनोज्ञदीप्तेः सकाशात . 4 सौभाग्यवत्यः । २८) 1 मर्यादीभूताक्षरा. 2 पुष्पमालायुक्ता वेणी. 3 पूर्णचन्द्रवदना. 4 मनोज्ञ. 5 वंशोत्पतया. 6 P ललिता. 7 क्षीणमध्यतया. 8 सुखम् । २९) 1 शीलस्य भावः शैलम्. 2 पेटिका. 3 दृष्ट्या यन्नेत्रण. 4 पूर्वकृतात् पुण्यात्।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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