SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 77
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -१. २६ ] - पुण्यपापफलवर्णनम् - 24) रूपं निशामयति जल्पति यच्च पथ्यं यदुर्भगो हितधिया तनुते ऽपरस्य । तत्तद् विषायतितरां ज्वलनायतें वा पापं विडम्बयति कैर्न नरान् प्रकारैः ॥ २४ 25) हृच्छोषकासगलगण्डशिरो ऽतिकुष्ठ श्लेष्मानिलप्रभृतिरोगगणैर्न जातु । लक्ष्म्या भवन्ति सुकृतात् सुचिरायुषश्च नाप्यल्पमृत्युमिह ते प्रविलोकयन्ते ॥ २५ 26) अन्ये समस्तावयवप्रकम्प प्रलीनचेष्टाः परिशिष्टकष्टाः। इतीव संचिन्तयता न नीता यमेन हाँ प्राणिवधोद्यमेनं ॥ २६ पुण्यहीन मनुष्य हितबुद्धि से जो दूसरे के सौन्दर्य को सुनाता है-उसकी प्रशंसा करता है, हितकारक भाषण करता है, तथा और भी जो वह उसका हितबुद्धि से कार्य करता है। वह सब उसे (दूसरे को) अतिशय विष अथवा अग्निके समान संतापजनक प्रतीत होता है। ठीक है- पाप मनुष्यों को किन किन प्रकारों से प्रतारित नहीं करता है ? वह उन्हें अनेक प्रकार से कष्ट दिया करता है ॥२४॥ पुण्यशाली प्राणी हृच्छोष (यक्ष्मा), कास (खाँसी), गण्डमाला, मस्तकशूल, कुष्ठ, कफ और वात आदि (पित्त आदि) रोगसमूहों से कदापि पीडित नहीं होते, इसीलिये वे दीर्घायु भी होते हैं । लोक में वे कभी अल्पमृत्यु को नहीं देखते, अर्थात् उनका अकाल में मरण नहीं होता है ॥२५॥ इसके विपरीत पापी जन संपूर्ण अवयवों में कम्प उत्पन्न होने से किसी भी कार्य के करने में असमर्थ होते हैं । तथा उनको अधिकसे अधिक सर्व प्रकार का कष्ट भोगना पडता है। ऐसा विचार करके ही मानो प्राणिवध में उद्यत रहनेवाला यम उन्हें नहीं ले जाता है । वे महान् दुख को भोगते हुये दीर्घकाल तक जीवित रहते हैं ॥२६।। arrrrrrrrrrrow २४) 1 श्रावयति, वर्णयति. 2 हितम. 3 भाग्यरहितः . 4 विस्तारयते. 5 हीनकर्म विषाय भवति. 6 अग्निवज्जायते । २५) 1 हृद्दाह. 2 वायु. 3 न पीडिते. 4 लक्षम्या साधं चिरायुषा भवन्ति-चिह्निता: पीडा न भवन्ति (?). 5 संसारे. 6 न पश्यन्ति । २६) 1 पुण्यहीनाः . 2 अधिककष्टाः.3 किन नीता अपि त नीताः. 4 कष्टम् . 5 कथंभूतेन यमेन हिंसाकारकेण ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy