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- धर्मरत्नाकरः -
[१. २२22 ) रे रे पापिष्ठ कुष्ठिन्नलसतममहाराजनिर्लज्जचेट
कष्टं प्रोत्थाप्यसे त्वं गृहपतिशयने संवृते रे मयैवम् । मञ्च कश्चिज्जहाति श्रवणपथमनोन्मन्थिनी वाचमित्थं
शृण्वन् कुस्वामिचेट्या व्यपगतसुकृतः प्रातरुद्गीयमानः ॥ २२ 23) यहेहार्धनरी हरं गिरिसुता वक्षःस्थिता वाच्युतं
लक्ष्मीर्यच्च मनोभवं रतिरहो नैवामुचत् प्रेमतः । कामिन्यः सुभगं विलोक्य च बलाद् यत्कामयन्ते ध्रुवं तत्संवर्धितधर्मकल्पतरुजं वर्ण्य फलं धीधनैः ॥ २३
इन्द्र होवें; इस प्रकार गन्धर्व लोगों के द्वारा पुण्यवान् पुरुष का सदा कीर्तन किया जाता है तथा प्रतिदिन प्रातःकाल होनेपर भाट लोगों के द्वारा वह पुण्यवान् अतिशय मधुर शब्दों से स्तुत होता है तथा पापीजनों को अप्राप्य ऐसे विलासों से वह (पुण्यपुरुष) पूजा जाता है । इस प्रकार जिसका पुण्य सदा जागत है-उदय को प्राप्त है-वह सैंकडों राजाओं के नमस्कार को स्वीकार करता हुआ प्रतिदिन प्रातःकाल में निद्राका परित्याग करता है-जागृत होता है ॥२१॥
कोई पुण्यहीन मनुष्य, " अरे पापिष्ठ कुष्ठिन् , अत्यन्त आलसी महाराज का निर्लज्ज दास, इस घर के मालिक की शय्या समेटनेपर मैं तुझे कष्ट से उठाती हूँ" इस प्रकार प्रातःकाल में दुष्ट स्वामी की दासी से कहे गये कान और मन को दुःख देनेवाले शब्दोंको सुनता हुआ शय्याका त्याग करता है-सोनेसे उठता है ।।२२।। - पार्वती ने जो शंकर के आधे शरीर में अवस्थित होकर प्रेम के वश उसे नहीं छोडा. लक्ष्मीने जो विष्णु के वक्षःस्थलपर स्थित होकर स्नेहवश उसे नहीं छोडा, रति ने भी जो उसी प्रेम के वशीभूत होकर कामदेव को नहीं छोडा, तथा काम की अभिलाषा करनेवाली कितनी ही स्त्रियाँ भी जो किसी सुंदर पुरुष को देखकर बलपूर्वक उसकी अभिलाषा किया करती हैं; वह सब निश्चयसे वृद्धिंगत किये गये उस धर्मरूप कल्पवृक्ष का फल है, ऐसा विद्वज्जन वर्णन करते हैं ॥२३॥
२२) 1 दास. 2 मया स्वामिशय्या संहारे कृते । सति. 3 त्यजति. 4 किं कुर्वन् इत्थं वाचमुद्गीयमानं श्रृण्वन . 5 कुत्सितदास्या चेटिकया । २३) 1 ईश्वरं. 2 नारायणम् . 3 अत्यक्तवती पूर्वम्. 4 वर्णनीयम् 5 पण्डितजनैः ।