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- धर्म रत्नाकरः
16 ) जायन्ते जन्तवो' जात धर्मात् सिद्धगताविव । पापादतीव निन्द्यायामन्ये श्वभ्रं गताविव ॥ १६ 17 ) इक्ष्वाक्वादिसमन्वयेषु' विबुधा विश्वार्चनाधामसु सुत्रामप्रमुखाश्च येषु जननं * काङ्क्षन्ति तेषु स्वयम् । जायन्ते नृभवे समेऽपि सुकृतात् केचित् पुनर्दुष्कृतानिन्द्यैरप्यतिनिन्दितेषु सकले तुल्ये ऽपि लग्नादिके ॥ १७
18) गर्भे केचिदपूर्णरूपवपुषो बाल्ये ऽपरे यौवने
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रामारम्यतरे तरां निरुपमे धर्मार्थकामक्षमे । वृद्धत्वे वनं यान्ति गहनं सर्वत्र कालानन यत्तत् पापविजृम्भितं मतिमतां पूजास्पदैर्वर्णितम् ॥ १८
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धर्माचरण करने से प्राणी सिद्धगति के समान उच्च जाति में उत्पन्न होते हैं और दूसरे - पापीजन - पाप से नरकगति के समान अतिशय निन्द्य जाति में उत्पन्न होते हैं ॥ १६ ॥
मनुष्य जन्म के समान होनेपर भी कितने ही मनुष्य पुण्योदय के प्रभाव से जिन कुलों में स्वयं इंद्र - सामानिकादिक देव भी उत्पन्न होने की इच्छा करते हैं उन लोकपूजा के स्थानभूत इक्ष्वाकु एवं कुरुवंश आदि उत्तम कुलों में जन्म लेते हैं । और कितने ही मनुष्य अपने दुष्कर्म से समस्त लग्न, मुहूर्त व दिनादिके समान होनेपर भी निन्द्य जनों के द्वारा भी निन्दनीय ऐसे नीच कुलों में उत्पन्न होते हैं ।। १७ ।।
कितने ही प्राणी अपूर्ण रूप व शरीरसे युक्त होते हुए गर्भ में; दूसरे कितने ही बाल्यावस्था में; कितने ही स्त्री के आश्रयसे अतिशय रमणीय प्रतीत होनेवाली तथा धर्म, अर्थ एवं काम के सेवन में समर्थ ऐसी यौवन अवस्था में; और कितने ही वृद्धावस्था में अनवन - अरक्षण ( मृत्यु ) - को प्राप्त होते हैं । इस प्रकारसे सर्वत्र जो भयानक कालका मुख खुला हुआ है, अर्थात् किसी भी अवस्था में जो प्राणी का संरक्षण संभव नहीं है, यह सब पाप का प्रभाव है; ऐसा बुद्धिमानों की पूजा के स्थानभूत पूज्य पुरुषों के द्वारा कहा गया है ॥ १८ ॥
१६) 1 जीवाः. 2 सुजातिविषये उत्पद्यन्ते 3 निन्द्यायां गतौ. 4 नरकगतौ । १७ ) 1 वंशेषु. 2 संसार पूजागृहेषु. 3 इन्द्रादयः. 4 वंशेषु जन्म 5 तुल्ये. 6 निन्द्यैर्जनैरतिनिन्दितेषु वंशेषु. 7 लग्ने मुहूर्ते दिने रात्रौ समानेऽपि । १८ ) 1 अरक्षं रक्षारहितम् 2 कृतान्तस्य मुखम् 3 विलसितं व्यापितं वा. 4 पूज्यैः ।