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________________ । tantinenesialistsARAMETHAPPERSITUALLUTIMERAMANANESHBHATARNAMAN Impromi dimitenessmandalanidinates - धर्मरत्नाकरः - ___ [१.३3) भवाटवीभीतभविव्रजस्य विमुक्तिपुर्याप्तिसमुत्सुकस्य । सुनिर्भया विश्रमहेतवो जे हरन्तु ते मे मुनयस्तमांसि ॥३ 4) मार्गापरित्यागगुणेन पुंसा स्वल्पश्रुतेनाप्युपगीयमानः । सर्वज्ञधर्मः प्रणिहन्ति पापं सौपर्णमुद्रेव विषं विचित्रम् ॥४ 5) चिन्तामणिप्रभृतयो ऽपि हिता भवन्तो धर्मेण तैः कथमसावुपमा प्रयातु। कि भानुमान् भुवनमध्यगतार्थभासी खद्योतकप्रभृतिभिर्भवतूपमेयः ॥५ 6) अन्यैरनुक्तमिति जैनमतं न हेयं नायुक्तमात्रमिति सत्पुरुषैरुपेयम् । युक्तं शिशूक्तमपि किं न बुधो ऽभ्युपैति चिन्तामणिं त्यजतु बालसमर्पितं किम् ॥ ६ जो मुक्तिरूप नगरी की प्राप्ति में अतिशय उत्कंठा रखनेवाले तथा संसाररूप वनसे .. डरनेवाले भव्यसमूह को अतिशय निर्भय होकर विश्राम देते हैं, वे मुनिजन मेरे अज्ञानरूप अन्ध कार को नष्ट करें ॥३॥ ...... जिस प्रकार मन्त्रशास्त्र को अल्प मात्रा में भी जाननेवाले मान्त्रिक के द्वारा दी जानेहवाली सर्पविषनाशक. मुद्रिका विचित्र-विविध प्रकारके-विष को नष्ट किया करती है, उसी प्रकार मुक्तिमार्ग का-रत्नत्रय का-त्याग न करनेवाले अतिशय अल्प शास्त्रज्ञ के द्वारा भी वणित सर्वज्ञ प्रतिपादित धर्म-जिनधर्म-प्राणियोंके पाप को नष्ट किया करता है ॥४॥ चिन्तामणि आदि(कामधेनु और कल्पवृक्ष) भी धर्म के आश्रय से ही हित किया ६. करते हैं। अतः यह जिनधर्म उनके साथ उपमा को कैसे प्राप्त हो सकता है ? लोक के मध्य - में अवस्थित सर्व पदार्थों को प्रकाशित करनेवाला सूर्य क्या जुगनूं आदि (दीप) पदार्थों के . साथ कभी उपमा को प्राप्त हो सकता है ? नहीं हो सकता है ।। ५ ॥ दूसरों ने-अन्य मतानुयायिओं ने नहीं कहा है. इस हेतु से जैनमत का त्याग करना योग्य u A रा ३) 1 P विश्रमणस्थिति ये । ४) D गायमानः।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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