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- १.८] . - पुण्यपापफलवर्णनम् -
7) त्रैलोक्ये सचराचरे ऽप्यभिमतं संपादयन् प्राणिनां
ख्याति स्वां प्रभुतां च नास्तिकमतं निर्मूलयन् मूलतः । धर्मो भानु रिवाखिलाङ्गिरुचितं मार्ग सदोद्योतयन्
स्वं निर्भासयति प्ररूढतिमिरस्तोमं प्रविध्वंसयन् ॥ ७ 8) श्रीतीर्थाधिपचक्रवर्तिहलभृल्लक्ष्मीशमुख्याः परा
धर्मादेव जगत्त्रयोत्तमयशःश्वेतीकृताशान्तराः । अद्यापि पंतपत्पवित्रितजगन्नामान एवंविधा आसन कम्पितखेचरेश्वरसुरक्ष्मापालचक्रा अपि ॥८
नहीं है । अथवा दूसरों ने उसका उपदेश किया है, इस हेतु से सज्जनों को उसे ग्रहण भी नहीं करना चाहिये । सो ठीक भी है-क्योंकि बालक के भी योग्य वचन को क्या बुद्धिमान मनुष्य नहीं स्वीकारता है? और क्या बालक के द्वारा दिये गये चिन्तामणि रत्न को चतुर पुरुष छोड देता है ? नहीं छोडता है । अभिप्राय यह है कि, जिस प्रकार लोक में बालक के भी योग्य वचन को रुचिपूर्वक ग्रहण किया जाता है उसी प्रकार अल्पज्ञ होने पर भी मेरे द्वारा कहे जानेवाले हितकारक जैनधर्म को ग्रहण करना योग्य है ॥६॥
नास्तिक मत को-जीव, पाप, पुण्य व स्वर्गादि परलोक नहीं है, केवल देह ही आत्मा है, ऐसा माननेवाले मत को- मूलसे उखाडकर फेंकनेवाला यह धर्म (जिनधर्म ) जीव और अजीवों से भरे हुये इस त्रैलोक्य में प्राणियों को इष्ट वस्तुओं की प्राप्ति कराता हुवा अपनी ख्याति और प्रभाव को इस प्रकार से प्रकट करता है जिस प्रकार कि सर्व प्राणियों को रुचनेवाले मार्ग को सदा प्रकाशित करनेवाला, और बढे हुये अन्धकार के समूह को नष्ट करनेवाला सूर्य प्राणियों को प्रिय ऐसे मार्ग को प्रकाशित करके बढे हुये अन्धकार के समूह को नष्ट करता हुआ अपनी ख्याति और प्रभाव को प्रगट करता है ॥७॥
जिन्होंने विद्याधर चक्रवर्ती, इन्द्र और राजाओं के समूह को भी कंपित किया है, जिन्होंने प्रतापयुक्त अपने नाम से जगत् को पवित्र किया है तथा जिन्होंने जगत्त्रय में फैले हुये अपने उत्तम यश से दिशाओं के मध्यभाग को धवलित किया है ऐसे श्रीतीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलभद्र और लक्ष्मीश (नारायण) आदि पुरुष रत्न धर्म के ही प्रभाव से जगत् में उत्पन्न हुये हैं ॥८॥
७) 1 आत्मानम् . 2 प्रकाशयति. 3 उत्कटतिमिरसमूहम् । ८) 1 बलभद्र. 2 नारायण 3 यशसा. 4 दिशानां मध्या:, 5 प्रतापात्यय (?). 6 समुत्पन्नास्तिष्ठन्ति. 7 पृथ्वीपालराजा. 8 समूहा अपि