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________________ ३० - धर्मरत्नाकर: - विषय श्लोकाङक ७. ज्ञानदान का फल वीतरागवचन उत्तम आगम रागादिक दोषों से असत्य की निर्मिति २-३ वैदिक वाक्य अपौरुषेय नहीं ४-५ इस विषय में शङका और उसका निरास वेद का व्याख्याता रागद्वेषरहित होना चाहिये ११-१३ सृष्टि का निर्माता कोई नहीं १३२१ परमत निराधार है १३*२ जिन भगवान् ही योग्य उपदेशक १४-१५ अनेकान्त, पदार्थ और धर्म का स्वरूप १६-२० बौद्धमत का निरास २१-२७ आत्मा की नित्यता असंभवनीय २८-३२ अनेकान्त का महत्त्व ३३ जीवादि पदार्थों का अनुमान ही युक्त है ३४ अनुमान के अभाव में जिनवचन से निश्चय करना ३५-३८ पुण्यपापादि का विचार ही करना चाहिये कर्म की विविधरूपता ४०-४१ कर्म का प्रभाव ४२-४५ आस्तिक जन कर्मों को मानते हैं ४६ योगी जन सुखी देखे जाते हैं योगी जन द्वन्द्व से रहित द्वन्द्वाभाव से उत्कृष्ट सुख ४९-५० द्वन्द्वाभाव का अनुमान ५१-५२ ज्ञान से कर्मनाश ५३ पाप का भयानक परिणाम जिनवचन की सत्यता ५५-५७, ५९-६२, सर्वज्ञ का निषेध असंभाव्य गुरु का स्वरूप ६३-६५ आगमलोप से धर्म का लोप ६६-६८ जिनागम के रक्षक राजा ६९-७० आगम का तथा श्रुतज्ञानियों का रक्षण करना आवश्यक है ७१-७२ धर्मरक्षण से पुण्यवृद्धि सब शास्त्र धर्मशास्त्र के अन्तर्गत हैं। ७४-७६ जिनशासन के उद्धारक सम्यग्दष्टियों के स्वीकार से मिथ्याष्टियों का भी शास्त्र समीचीन ७८-८२ ४८ ५८ ७३ ७७
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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