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- धर्मरत्नाकर: -
विषय
श्लोकाङक
७. ज्ञानदान का फल वीतरागवचन उत्तम आगम रागादिक दोषों से असत्य की निर्मिति
२-३ वैदिक वाक्य अपौरुषेय नहीं
४-५ इस विषय में शङका और उसका निरास वेद का व्याख्याता रागद्वेषरहित होना चाहिये ११-१३ सृष्टि का निर्माता कोई नहीं
१३२१ परमत निराधार है
१३*२ जिन भगवान् ही योग्य उपदेशक
१४-१५ अनेकान्त, पदार्थ और धर्म का स्वरूप
१६-२० बौद्धमत का निरास
२१-२७ आत्मा की नित्यता असंभवनीय
२८-३२ अनेकान्त का महत्त्व
३३ जीवादि पदार्थों का अनुमान ही युक्त है
३४ अनुमान के अभाव में जिनवचन से निश्चय करना ३५-३८ पुण्यपापादि का विचार ही करना चाहिये कर्म की विविधरूपता
४०-४१ कर्म का प्रभाव
४२-४५ आस्तिक जन कर्मों को मानते हैं
४६ योगी जन सुखी देखे जाते हैं योगी जन द्वन्द्व से रहित द्वन्द्वाभाव से उत्कृष्ट सुख
४९-५० द्वन्द्वाभाव का अनुमान
५१-५२ ज्ञान से कर्मनाश
५३ पाप का भयानक परिणाम जिनवचन की सत्यता
५५-५७, ५९-६२, सर्वज्ञ का निषेध असंभाव्य गुरु का स्वरूप
६३-६५ आगमलोप से धर्म का लोप
६६-६८ जिनागम के रक्षक राजा
६९-७० आगम का तथा श्रुतज्ञानियों का रक्षण करना आवश्यक है ७१-७२ धर्मरक्षण से पुण्यवृद्धि सब शास्त्र धर्मशास्त्र के अन्तर्गत हैं।
७४-७६ जिनशासन के उद्धारक सम्यग्दष्टियों के स्वीकार से मिथ्याष्टियों का भी शास्त्र समीचीन
७८-८२
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