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________________ ४२० -धर्मरत्नाकरः1658) यत्रास्पदं विदधती परमागमश्री रात्मन्यमन्यत सतीत्वमिदं तु चित्रम् । वृद्धा च संततमनेकजनोपभोग्या श्रीगोपसेनगुरुराविरभूत् स तस्मात् ।। ५ 1659 ) उत्पत्तिस्तपसां पदं च यशसामन्यो रविस्तेजसा मादिः सद्वचसां विधिः सुतरसामासीनिधिः श्रेयसाम् । आवासो गुणिनां पिता च शमिनां माता च धर्मात्मनां न ज्ञातः कलिना जगत्सु बलिना श्रीभावसेनस्ततः ॥६ 1660 ) ततो जातः शिष्यः सकलजनतानन्दजननः । प्रसिद्धः साधनां जगति जयसेनाख्य इह सः । इदं चक्रे शास्त्रं जिनसमयसारार्थनिचितं हितार्थे जन्तूनां स्वमतिविभवाद गर्व विकलः ॥७ 1661 ) यावद् द्योतयतः सुधाकररवी विश्वं निजांशूत्करै विल्लोकमिमं बिभर्ति धरणी यावच्च मेरुः स्थिरः । रत्नांशुच्छरितोत्तरङ्गपयसो यावत्पयोराशयस्तावच्छास्त्रमिदं महषिनिवहस्सत् पठ्यमानं श्रिये ॥८ । इति धर्मरत्नाकरं समाप्तम् । उनके पश्चात् श्री गोपसेन नाम के वे गुरु आविर्भुत हुए जिन के विषय में स्थान को धारण करने वाली परमागम की लक्ष्मी - विभूति - वृद्धा (बुढढी) होकर भी निरन्तर अनेक जनों के उपभोग की विषय बनती हुई भी अपने को सती मानती थी, यह आश्चर्य की बात है।॥५॥ गोपसेनाचार्य के अनन्तर उनके शिष्य स्वरूप भावसेन हुए । ये तपों की उत्पत्ति के कारण कीर्ति के निवासस्थान, तेजों के विषय में दूसरे सूर्य के समान, उत्तम वचनों के आदि मुख्य कारण, सुतरसों (?) के विधि, कल्याणों के निधि, गुणियों के निवासस्थान, शमीजनों के पिता तथा धर्मात्मा जनों की माता जैसे थे।लोक में उन्हें बलवान-कलि ने नहीं जाना था॥६॥ भावसेन के पश्चात् यहाँ उनके शिष्यरूप में समस्त जनसमूह को आनन्द देनेवाले व साधुओं के लोक में प्रसिद्ध वे जयसेन नाम के गुरु हुए जिन्होंने प्राणियों के हित के लिये अपने बुद्धिवैभव के अनुसार अभिमान से रहित होते हुए जिनमत के सारभूत अर्थों से व्याप्त इस शास्त्र को रचा है ॥७॥ जब तक चन्द्र और सूर्य अपनी किरणों के समूहों से इस विश्व को प्रकाशित करते हैं, जब तक पृथ्वी इस लोक को धारण करती है, जब तक मेरुपर्वत हैं और रत्नों की किरणों से ऊपर उठ कर तरंगों को फेंकनेवाले जल से परिपूर्ण समुद्र जब तक विद्यमान है, तब तक लक्ष्मी के लिये महर्षियों के द्वारा पढा जानेवाला यह शास्त्र पृथ्वीपर स्थिर रहे ॥ ८॥ - इस प्रकार सूरि श्री जयसेनविरचित धर्मरत्नाकर नामक शास्त्र सम्पूर्ण हुआ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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