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________________ [ग्रन्थकारप्रशस्तिः ] 1654 ) श्रीवर्धमाननाथस्य मेदार्यो दशमो ऽजनि । गणभद् दशधा धर्मो यो मूर्तो वा व्यवस्थितः ॥ १ 1655) मेदार्येण महर्षिभिविहरता तेपे तपो दुश्चरं । श्रीखंडिल्लकुपत्तनान्तिकरणाभ्युद्धिप्रभावात्तदा । शाठ्येनाप्युपतत्त्वतो (?) सुरतरुप्रख्यां जनानां श्रिये तेनागीयत झाडवागड इति त्वेको हि संघोऽनघः ॥ २ 1656) धर्मज्योत्स्नां विकिर ति सदा यत्र लक्ष्मीनिवासाः पाश्चित्तं सकलकुमुदा यत्युपेता विकासम् । श्रीमान् सोऽभून्मुनिजननुतो धर्मसेनो गणीन्दु स्तस्मिन् रत्नत्रितयसदनाभूतयोगीन्द्रवंशे ॥३ 1657) भञ्जन वादीन्द्रमानं पुरि पुरि नितरां प्राप्नुवन्नुद्यमानं तन्वन् शास्त्रार्थदानं रुचिरुचिरुचिरं सर्वथा निनिदानम् । विद्यादर्शोपमानं दिशि दिशि विकिरन् स्वं यशो यो ऽसमान तेभ्यः श्रीशान्तिपेणः समजनि सुगुरुः पापधूलीसमीरः ॥ ४ ( कवि प्रशस्ति) श्री वर्धमाननाथ के मेदार्य नाम के दसवें गणधर हुए जो मानो दश प्रकार के मूर्त धर्म के समान व्यवस्थित थे ॥१॥ उन्होंने अनेक महर्षियों के साथ विहार करते हुए श्रीखंडिल्ल नगर के पास --- ऋद्धि के प्रभाव से दुश्चर तप किया। उन्होंने लोगों की लक्ष्मी को कल्पवृक्ष के समान करते हुए एक निर्दोष संघ — झाड बागड' (लाड बागड) नाम से कहा ॥ २ ॥ रत्नत्रय के गृहस्वरूप उस योगीन्द्र वंश में - झाडबागड नामक मुनिसंघ में - मुनि. जनों से स्तुत व श्री से सम्पन्न धर्मसेन नाम के वे आचार्य रूप चन्द्र हुए। जहां लक्ष्मी के निवास स्थान होते हुए कुमुद के समान मोक्षलक्ष्मी के निवासस्थान मुनि धर्मरूप चाँदनी के फैलने पर चित्त के विकास को प्राप्त होते हैं ॥ ३ ॥ उनके पश्चात् जो नगर नगर में विहार करके बडे बडे वादियों के अभिमान को अतिशय नष्ट किया करते थे। उदय को प्राप्त होते थे, विना किसी कारण के-निःस्वार्थ- रुचि की रुचि से मनोहर शास्त्र और अर्थ के दान को सब प्रकार से विस्तृत करते थे, विद्यादर्श के समान अपने असाधारण यश को दिङमण्डल में फैलाते थे; ऐसे पापरूप धूलि को उडाने के लिये वायु के समान श्री शान्तिषेण नाम के उत्तम गुरु हुए॥४॥
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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