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________________ -धर्मस्लाकरः [२०. ४०७१ 1651) तदुक्तम् लीनं वस्तुनि येन सूक्ष्मसुभगं तत्त्वं निराकृष्यते' निर्मातुं प्रभवेन्मनोहरमिदं वाचैव यो वा बहिः । वन्दे द्वावपि तावहं कविवरौ वन्देतमा त पुन ोविज्ञातपरिश्रमो ऽयमनयो रावतारक्षमः ॥ ४०*१ 1652) धर्मो धर्मरताश्च धर्ममहिमप्राप्तप्रभावा जना। धर्माङगानि च धर्मपालनपरा धर्माथिनो वा भुवि । धर्मस्फारणनैपुणा अपि तरां धर्मार्थसंजीविनो भूत्वानग्रहजातहर्षपुलका नन्दन्तु कालत्रये ॥४१ 1653) यस्या नैवोपमानं किमपि हि सकलोद्योतकेषु प्रतयं मन्ये नैकेन नित्यं श्लथयति सकलं वस्तुतत्त्वं विवक्ष्यम् । अन्येनान्तेन नीति जिनपतिमहितां संविकर्षत्यजस्रं गोपीमन्थानवद्या जगति विजयतां सा सखी मुक्तिलक्ष्म्याः ॥ ४२ ॥ इति श्री-सरि-श्री-जयसेनविरचिते धर्मरत्नाकरनामशास्त्र उक्तानुक्तशेषविशेषसूचको विंशतितमो ऽवसरः ॥२०॥ सो ही कहा है - वस्तु में जो सूक्ष्म और सुन्दर स्वरूप छिपा है उसे जो कवि पूर्णरूप से खींच लेता है -प्रगट करता है - तथा जो उस वस्तु के स्वरूप को बाहरसे ही अपने वचनद्वारा मनोहर बनाने में समर्थ होता है, उन दोनों हो श्रेष्ठ कवियों को मैं वन्दन करता हूँ। साथ ही जो उक्त दोनों कवियों के परिश्रम को जानता हुआ उन के भार के उतारने में समर्थ होता है उसकी मैं अतिशय वन्दना करता हूँ ॥ ४० * १ ॥ धर्म. धर्म में अनराग करने वाले, धर्म के माहात्म्य से प्राप्त प्रभाव से संपन्न जन धर्म के अंगभूत, धर्म के पालन में तत्पर रहनेवाले, धर्म धारणा करने की इच्छा रखनेवाले, जगत् में धर्म के फैलाने में चतुर और धर्मार्थ को जोवित करने वाले सज्जन धर्म के अनुग्रह से उत्पन्न हुए हर्ष से रोमाञ्चित होते हुए समृद्ध होवें ॥ ४१॥ जिस प्रकार ग्वालिन रस्सी के एक छोर से मथानी को शिथिल करती है और दूसरे छोर से उसे खींचती है उसी प्रकार जिनेन्द्र देव से प्रतिष्ठित - उनके द्वारा निदिष्ट -जो अनेकान्तमय नीति सदा विवक्षा के विषयभूत समस्त वस्तुतत्व को एक धर्म से शिथिल करती है अविवक्षित किसी धर्म की अपेक्षा उसे गौण करती है – एवं दूसरे विवक्षित धर्म की अपेक्षा प्रधान करती है तथा जिस के लिये लोक में समस्त सादृश्य के द्योतक पदार्थों में कोई भी उपमान नहीं सोचा जा सकता है; एसी वह मुक्तिलक्ष्मी की सखीस्वरूप असाधारण व निर्दोष जैनी नीति जयवंत हो ॥ ४२ ॥ इस प्रकार सूरि श्री जयसेन विरचित धर्मरत्नाकर नामक शास्त्र में कहे हुए और न कहे हुए विशेषों का सूचक यह वीसवाँ अवसर समाप्त हुआ ॥ २० ॥. ४०*१) 1 निश्चयेन गृह्यते. 2 प्रमाणीकर्तु. 3 तत्वम.4 तं तृतीयम्. 5 तयोः पूर्वोक्तयोः भारो..... ४१) 1 PD° भूपा। ४२) 1PD अन्त्येनैकेन. 2 P° इति धर्मरत्नाकरे उक्ता ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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