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- उक्तानुक्तशेष विशेषसूचकः -
1647 ) सद्गन्धाय समुल्लसन्तु सुधियामा ह्लादनायोच्छ्वसन् तत्सूत्राणि वचांसि भूवचसुधामामेषु पुष्पाणि यः (१) । इत्येतै रुपनीतचित्ररचनैः स्वैरन्यदीयैरपि भूतोदद्यगुणैस्तथापि रचिता मालेव सेयं कृतिः ॥ ३७ 1648 ) विद्वांसंस्त्वर्थचयै निधिवन्निचिताभिसर्वतस्तन्मे । वर्णपदवाक्यरचनीस्थान निवेशात्प्रसीदन्तु ।। ३८ 1649 ) चेद्धर्मरत्नाकर इत्यभिख्या सत्यान्वयास्य प्रतिभाति विज्ञाः । अंशेन केनापि तदाद्रियध्वमालोकमात्रेण परैः किमुक्तैः ॥ ३९
1650 ) वस्तुस्थितिं गिरि' बिर्भात हि कोऽपि तत्त्वं विस्फारयत्यपि गिरा बहिरेव कश्चित् । यः स्थितं श्रममति विचारचञ्चु - भरावतारनिपुणः स तयोर्विवन्द्यः ॥ ४० ॥
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यह कृति मैं ने माला के समान रची है । इस में जो सूत्र अथवा वचन लिखे हैं वे इस भूतल के पुष्पों के समान हैं । यह माला विद्वानों को उत्तम गंध के लिये और हर्ष के लिये है। इस में मेरे और अन्य आचार्यों के वचनपुष्प हैं । इसलिये इस माला की विचित्र रचना हुई है । इस में अच्छे गुण हैं ? ॥ ३७ ॥
जैसे निधि (भण्डार) अर्थसंचयों से - धन समूहों से – पूर्ण होती है वैसे ही मेरी यह कृति (प्रस्तुत ग्रन्थ ) अर्थसंचयों से - उत्तम अभिप्रायों से - सर्वतः परिपूर्ण है । उसमें यथास्थान वर्ण, पद और वाक्यों की रचना स्थान दिया गया है । इसीलिये उसे देखकर विद्वान् जन प्रसन्नता का अनुभव करें ॥ ३८ ॥
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हे विद्वज्जनो ! यदि आप को इस ग्रन्थ का 'धर्मरत्नाकर' यह नाम सत्य से अन्वित प्रतीत होता है तो अधिक कहने से क्या ? इसके किसी प्रकरण को देखकर इसका आदर करें ॥ ३९ ॥ कोई ग्रन्थकार वस्तु की जो स्थिति – स्वरूप है उसे अपनी वाणी में धारण करता है – उसका उतने मात्र में ही अपनी वाणी द्वारा चित्रण करता है । दूसरा कोई ग्रन्थकार वस्तुस्वरूप को अपनी वाणी के द्वारा बाह्य में ही अधिक विस्तृत करता है । जो विचारदक्ष मनुष्य भार के उतारने में निपुण होकर उन दोनों कृतियों में ग्रन्थकार के अभ्यन्तर स्थित - मनोगत - परिश्रम को जानता है वह विशेषरूप से वन्दनीय है ॥ ४० ॥
३८) 1 पण्डिता: 2 P० चनस्थानर° । ४० ) 1 वाण्या विषये. 2 धारयति 3 वाचा वाण्या 4 चतुर:. 5 D° विबन्ध |
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