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४१६ -धर्मरलाकरः -
[२०. ३३1643) एकत्र पुंसि समवायवशाद्विरुद्ध
संसाध्ययोरपि तयोर्व्यवहार एषः । अन्यादशो ऽपि जगति प्रथितो बभूव
सर्पिर्यथा दहति लोहितमंशुकं वा ॥ ३३ 1644) सम्यक्त्वविज्ञानचरित्रमेव विमुक्तिमार्गो निरपाय एषः।
मुख्योपचारपविभक्तदेहः परं पदं प्रापयते पुमांसम् ॥ ३४ 1645) सर्वम्लानिविदूरगो गगनवत्सर्वार्थसिद्धीश्वरः
सर्वोपद्रवजिते परपदे सर्वातिचारातिगः । सर्वाश्चर्यनिधिश्च सर्व विषयज्ञानप्रभावः पुमान्
सर्वैरप्युपमापदैरकलितो प्राप्तः सदा नन्दतात् ॥ ३५ 1646) सप्ततिसहस्रयुक्तैरेकादशलक्षकैः किल पदानाम् ।
श्रावकधर्मो जगदे यस्तं निगदामि कथमहं त्वपदः॥ ३६
जिस प्रकार घी में अग्निका समवाय होने से लोक में 'घो जलाता है' ऐसा व्यवहार होता है, पर वास्तव में दाह का कारण वह घी नहीं है, किन्तु उस में समवेत अग्नि है; तथा वस्त्र में लाल रंग का समवाय होने से 'वस्त्र लाल है ' ऐसा लोकव्यवहार होता है-पर वस्तुतः वस्त्र लाल नहीं है । ठीक इसी प्रकार एक आत्मा में परस्पर विरुद्ध कारण से सिद्ध होनेवाले उन दोनों का समवाय होने से लोक में रत्नत्रय देवायु आदि पुण्यप्रकृतियों का बन्धक है यह विलक्षण व्यवहार प्रसिद्ध है ॥३३॥
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र यही निर्बाध मुक्ति का मार्ग है । उक्त रत्नत्रयस्वरूप मोक्षमार्ग का शरीर मुख्य और गौण इन दो भेदों में विभक्त है । वह आत्मा को उत्तम स्थान को - मुक्तिपद को - प्राप्त करा देता है (अर्थात उस दो प्रकार के रत्नत्रय की आराधना से ही जीव मुक्त होता है) ॥३४॥
जीव जब सब अतिचारों से मुक्त होकर समस्त उपद्रवों से रहित उत्तम पद में - सिद्धालय में - अवस्थित होता है तब वह वहाँ आकाश के समान सब प्रकार की मलिनता से दूर रहकर समस्त अर्थसिद्धियों का स्वामी, सब आश्चर्यों का - अतिशयों का - स्थान अनन्त पदार्थों के जानने में समर्थ और सब उपमास्थानों से रहित होता हुआ सदा आनन्दित रहता है ॥३५॥
___जो श्रावक धर्म उपासकाध्ययन अंग में ग्यारह लाख सत्तर हजार (११,७०,०००) पदों के द्वारा कहा गया है उसे मैं पदपरिज्ञान से रहित हो कर कैसे कह सकता हूँ ? ॥३६॥
३४) 1 D अविनश्वरः । ३५) 1 Dआत्मा. 2 Dरहितः । ३६)1 कथितः. 2 यः धर्मः तं धर्मम् ।