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________________ - धर्मरलाकरः - ३७ ४६ ४७ ४८ विषय श्लोकाङक शुभकर्मनिषेधकों की निंदा आरम्भत्याग से गृहस्थधर्म की समाप्ति ३५-३६ द्रव्यस्तव और भावस्तवरूप धर्म धर्म के लिये आरम्भ अयोग्य नहीं भरत आदि राजाओं के उदाहरण ३९-४१ धर्म के द्वेषी धर्म के लिये पाप करना भी अच्छा है धर्म के लिये आरम्भ करनेवालों के गुण ४४-४५ श्रीतीर्थकर का तीर्थ अनुपम हैं जिनधर्म के भक्त जिनधर्म के द्वेष्टा देवादि के उद्देश से किया गया आरम्भ पुण्य का कारण ४९-५१ धर्मारम्भ में तत्पर भव्य के गुण ५२ मिथ्यात्वादि के अभाव से अशुभ का अभाव ५३-५४ द्रव्यस्तव में दोष की अपेक्षा गुण अधिक ५५ जिनपूजन का फल ५६-५७ विशेष विद्वान् द्रव्यस्तव के प्रशंसक द्रव्यस्तव की प्रशंसा देवकृत्य न करनेवाले पशु के समान मुनियों को आहारादिक देनेवाले निर्दोष आरम्भ से कर्मबन्ध होनेपर भी वह अभीष्ट है ६२-६३ धर्म के लिये आरम्भ को पाप माननेवाले मूर्ख ६४-६५ औषधादि देने से उत्तम फल मिलानेवालों के उदाहरण ६६-७५ साधुओं को आहारादिक देना पुण्यकारक ७६-८० अन्यायप्राप्त द्रव्यादि साधुओं को नहीं देना ८१-८५ मध्यम और जघन्यदान ८६-८७ मध्यम और जघन्य दान का भी स्वीकार आवश्यक ८८-९३ देशकालादि की अपेक्षा से कल्प्याकल्प्यता ९४-९६ किसी भी अवस्था में दाता ने दान देना चाहिये ९७-९९ आहारादि देनेसे भक्ति की प्रकटता १००-१०१ श्रद्धा से शास्त्रोक्त विधान का स्वीकार करना चाहिये १०२ वन्दना की प्रशंसा वन्दना की तरह दान दान से अनेक गुण १०५-१०९, ११९ दान न देने से अनेक दोष ११०-१११ स्वयं अपात्र होने से दूसरों में अपात्रबुद्धि ११२ १०३ १०४
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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