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- धर्मरलाकरः -
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विषय
श्लोकाङक शुभकर्मनिषेधकों की निंदा आरम्भत्याग से गृहस्थधर्म की समाप्ति
३५-३६ द्रव्यस्तव और भावस्तवरूप धर्म धर्म के लिये आरम्भ अयोग्य नहीं भरत आदि राजाओं के उदाहरण
३९-४१ धर्म के द्वेषी धर्म के लिये पाप करना भी अच्छा है धर्म के लिये आरम्भ करनेवालों के गुण
४४-४५ श्रीतीर्थकर का तीर्थ अनुपम हैं जिनधर्म के भक्त जिनधर्म के द्वेष्टा देवादि के उद्देश से किया गया आरम्भ पुण्य का कारण ४९-५१ धर्मारम्भ में तत्पर भव्य के गुण
५२ मिथ्यात्वादि के अभाव से अशुभ का अभाव ५३-५४ द्रव्यस्तव में दोष की अपेक्षा गुण अधिक ५५ जिनपूजन का फल
५६-५७ विशेष विद्वान् द्रव्यस्तव के प्रशंसक द्रव्यस्तव की प्रशंसा देवकृत्य न करनेवाले पशु के समान मुनियों को आहारादिक देनेवाले निर्दोष आरम्भ से कर्मबन्ध होनेपर भी वह अभीष्ट है ६२-६३ धर्म के लिये आरम्भ को पाप माननेवाले मूर्ख ६४-६५ औषधादि देने से उत्तम फल मिलानेवालों के उदाहरण ६६-७५ साधुओं को आहारादिक देना पुण्यकारक
७६-८० अन्यायप्राप्त द्रव्यादि साधुओं को नहीं देना ८१-८५ मध्यम और जघन्यदान
८६-८७ मध्यम और जघन्य दान का भी स्वीकार आवश्यक ८८-९३ देशकालादि की अपेक्षा से कल्प्याकल्प्यता
९४-९६ किसी भी अवस्था में दाता ने दान देना चाहिये ९७-९९ आहारादि देनेसे भक्ति की प्रकटता
१००-१०१ श्रद्धा से शास्त्रोक्त विधान का स्वीकार करना चाहिये १०२ वन्दना की प्रशंसा वन्दना की तरह दान दान से अनेक गुण
१०५-१०९, ११९ दान न देने से अनेक दोष
११०-१११ स्वयं अपात्र होने से दूसरों में अपात्रबुद्धि
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