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- धर्मरत्नाकरः
[२०. १८६१तत्र स्वरूपोपलब्ध्या निवृत्तविषयतृष्णस्य मनोवशीकारसंज्ञा वैराग्यम् । प्रत्यक्षानुमानागमानुभूतपदार्थविषया संप्रमोषस्वभावा स्मृतिस्तत्त्वचिन्तनम् । बाहयाभ्यन्तरशौचतपःस्वाध्यायप्रणिधानानि नियमाः । अहिंसा
सत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः। 1627) मूलव्रतानि वहता सहतत्त्वरुच्या
तेभ्यो ऽप्यणुव्रतगणाभरणं विशुद्धथै । सामायिकं तदनु वर्ग (पर्व) गतोपवासान्
दानामलान् हरितभक्षणवर्जनं च ॥ १९ 1628) अह्नि व्यवायाखिलमैथुनोज्झनारम्भसंगत्यजने स्वयोग्ये ।
विवर्जनं चानुमतिप्रदाने उद्दिष्टपिण्डत्यजनं क्रमेण ।। २० 1629) पूर्वे पूर्व व्रतमचलतां प्रापयन्तो ऽग्न्यमग्य
मारोहन्तो दृगवगमनाचारभाजः समस्ताः । अप्यन्योन्यं तरतमयुज संयतासंयताख्याः
संपद्यन्ते समयनिपुणा एकमेकादशैते ॥२१
व्रती श्रावक को निरन्तर वैराग्य भावना के साथ तत्त्व का विचार करते हुए यम और नियम के विषय में प्रयत्न करना चाहिये ॥ १८*१ ॥
वैराग्य - उन में आत्मस्वरूप का प्राप्ति से जिस की विषयतृष्णा विलीन हो चुकी है ऐसे सत्पुरुष का जो मनोवशोकार - मनका स्वाधीन करना - है, इस का नाम वैराग्य है। तत्त्वचिन्तन - प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम के विषयभूत पदार्थों को विषय करनेवाली जो यथार्थ स्मृति है उस का नाम तत्त्वचिन्तन है । नियम व यम - बाह्य व अभ्यन्तर शौच, तप स्वाध्याय और ध्यान; इन को नियम तथा अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह; इन को यम जानना चाहिये।
__ तत्त्वरुचि - तत्त्वश्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन के साथ आठ मल गुणों को धारण करना (१ दर्शन प्रतिमा) उन के पश्चात् अणुव्रत समूह-पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत व चार शिक्षाव्रत; इन बारह व्रतों का धारण करना (२ व्रत प्रतिमा), पश्चात् विशुद्धि के लिये सामायिकका अनुष्ठान (३ सामायिक प्रतिमा), तत्पश्चात् चारों पर्वोमें दान से निर्मल उपवास का ग्रहण (४ प्रोषध प्रतिमा), हरित (सचित्त) भक्षण का त्याग (५ सचित्त त्याग प्रतिमा), दिन में मैथुन का परित्याग (६ दिवा मेथुन त्याग) सब प्रकार के मैथुन का त्याग (७ ब्रह्मचर्य),
१८*१ गद्य) 1 P° ब्रह्मापरिग्रहा । २०) 1 दिन । २१) 1 तारतम्ययुक्ताः ।