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________________ -२०. २३.१] - उक्तानुक्तशेषविशेषसूचकः - ४१३ 1630 ) अत्र सन्ति गृहिणः षडादिमा ब्रह्मचर्यविमलाः परे त्रयः । कथ्यते ऽन्त्ययुगलं तु भिक्षुकं सर्वतो यतिरतः परो भवेत् ॥२२ 1631) भिक्षा चतुर्विधा ज्ञेया यतिद्वयसमाश्रया । उद्दिष्टादिविनिर्मुक्ता त्रिशुद्धा भ्रामरी तथा ॥२३ 1632 ) देवपूजामनिर्माय मुनीननुपर्चर्य च । __ यो मुजीत गृहस्थः सन् स भुञ्जीत परं तमः ॥२३*१ आरम्भ का त्याग (८ आरम्भत्याग) परिग्रह का परित्याग (९ परिग्रहत्याग), अपने योग्य - गृहस्थाश्रम सम्बन्धी - कार्य के विषय में अनुमति देने का त्याग(१० अनुमतित्याग) और उद्दिष्ट - अपने निमित्त से बनाये गये भोजन का त्याग ( ११ उद्दिष्टत्याग); इस प्रकार पूर्व पूर्व व्रत का स्थिरतापूर्वक पालन कर के आगे आगे के व्रतपर - प्रतिमा के ऊपर - आरूढ होते हुए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का आराधन करनेवाले समस्त गृहस्थ यद्यपि परस्पर में तरतम भाव को-हीनाधिकता को प्राप्त होते हैं,फिर भी वे सब ही नाम से संयतासंयत - पंचम गुणस्थानवर्ती – कहे जाते हैं । ये समय - आगम अथवा धर्म - में निपुण होते हुए एक एक उपर्युक्त ग्यारह स्थानों को प्राप्त करतें हैं ॥ १९-२१॥ उक्त ग्यारह प्रतिमाओं में प्रथम दर्शन प्रतिमा से ले कर छठी प्रतिमा तक के धारक श्रावक गहस्थ कहे जाते हैं। सातवीं आठवीं और नौवीं प्रतिमा के धारक श्रावक ब्रह्मचर्य से निर्मल - ब्रह्मचारी - तथा अन्तिम युगल - दसवीं और ग्यारहवों प्रतिमा के धारक श्रावकभिक्षुक कहे जाते है। इससे ग्यारहवीं प्रतिमा से आगे सब यति - पाँच महाव्रतों के धारक साधु होते हैं ॥ २२ ॥ यतिद्वय – देशयति (श्रावक ) और सर्वयति (मुनि) - के आश्रित भिक्षा चार प्रकार की जानना चाहिये। तथा उद्दिष्ट आदि दोषों से रहित और मन, वचन व काय से शुद्ध भिक्षा भरामरी कही जाती है। (अभिप्राय यह है कि जैसे भरमर पुष्पों को पीडित न कर के उन के रस को ग्रहण कर लेता है वैसे ही दाता से गृहस्थों को पीडा न पहुँचा कर जो आहार प्राप्त किया जाता है उसे भ्रामरी भिक्षा समझना चाहिये ॥ २३ ॥ जो श्रावक गृहस्थ हो कर जिनदेवको पूजा और मुनियों की भक्ति - आहारादिके द्वारा उनकी सेवा न करके भोजन करता है वह केवल अन्धकार का भोजन करता है, अर्थात् ऐसा अज्ञानी गृहस्थ केवल पाप को ही संचित करता है ॥२३*१॥ २२) 1 एकदाशसु मध्ये । २३) 1 अशनादि. 2 देशसर्वतः । २३६१) 1 अकृत्वा. 2 द्वारापेक्षणरहितः ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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