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• २०. १८१] - उक्तानुक्तशेषविशेषसूचकः - 1622 ) आपाते मधुरा विरामविरसास्तृष्णाभिवृद्धिप्रदा
दुष्प्राप्या व्यसनार्णवाश्च विषया ये प्राप्यपारा अपि । ते जन्मापि विवृद्धिमन्तमथवा तद्ग्राहकाणि त्वरं ।
ज्ञात्वा खान्यपि चात्मवानहरहस्तेभ्यो निवृत्ति क्रियात् ॥ १५ 1623 ) स्वरसेन निरुध्यन्ते यं दृष्ट्वेन्द्रियवृत्तयः ।
अनायासेन मरुतां तं यात शरणं जनाः ॥१६ 1624 ) इन्द्रियासंयमत्यागो हृषीकविजयो ऽथवा ।
दानं तु गदितं पूर्व सभेदं सफलं मया ॥१७ 1625) अष्टौ स्पर्शा रसाः पञ्च गन्धौ द्वौ वर्णपञ्चकम् ।
षड्जादयः स्वराः सप्त दुर्मनोक्षेष्वसंयमाः ॥ १८ 1626) वैराग्यभावना नित्यं नित्यं तत्त्वविचिन्तनम् ।
नित्यं यत्नश्च कर्तव्यो यमेषु नियमेषु च ॥ १८*१
विषय में पद पद पर आंखों को व्यावृत्त करता है - उन के देखने में बाधा डालता है - उसी प्रकार जो क्रोधादिका समूह बाह्यान्तरंग पदार्थों के जानने में प्रतिबन्ध करता है उस क्रोधादि कषायों के समूह को शान्ति लक्ष्मी की वृद्धि के लिये सर्वतः सर्व परिग्रहों के त्याग, सज्जनों की संगति शमरूप जल की वृष्टि और स्वाध्याय के योग से शान्त करना चाहिये ॥ १४ ॥
जो इन्द्रियविषय प्रारम्भ में - उपभोग के समय - मधुर प्रतीत होते हुए भी अन्त में नीरस शुष्क (कष्टप्रद) - सिद्ध होते हैं तृष्णा को वृद्धिंगत करते हैं, कठिनतासे प्राप्त किये जाते हैं, तथा दुख के समुद्र होने पर भी जिनका पार प्राप्त किया जा सकता है; वे संसार के बढानेवाले हैं तथा उन के ग्राहक इन्द्रिया हैं, यह जानकर शीघ्र ही मनस्व प्राणी को उन विषयों की ओर से निरन्तर इन्द्रियों को निवृत्त-पराङ्मुख करना चाहिये ॥१५॥
जिसको देखकर इन्द्रियों की प्रवृत्ति स्वरस से - विषयों की ओर से-अनायास ही रुक जाती है, मनुष्यों को उस देवों के देव की शरण में जाना चाहिये ॥ १६ ॥
मैं इन्द्रियविषयक असंयम के त्याग अथवा इन्द्रियविजय तथा भेद और फल से सहित दान का भी वर्णन पूर्व में कर चुका हूँ ॥ १७ ॥
___ आठ स्पर्श, पाँच रस, दो गंध, पाँच वर्ण और षड्जादिक सात स्वर; दुष्ट मन और इन्द्रियविषयक असंयम हैं ॥ १८॥
१५) 1 पारंगता. 2 विषयाणाम्. 3 अत्यर्थम्. 4 इन्द्रियाणि । १६) 1 स्वकीयात्मरतेन. 2 D भो
जना:।