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४.१०
-धर्मरत्नाकरः -..
[२०. १०1617) भेषजं विविधमाचरबथापथ्यसेवनपरो ऽस्ति रोगितः।
ध्यानसंयमशमश्रुतादिभी रिक्त एव हि तथैव कोपतः ॥ १० 1618 ) मानदावदहनावलीज्वलन्नद्रुमेषु मदवातवतिषु ।
दुःखधर्महरणक्षमा कथं रोहतीह हितपल्लवावली ॥ ११ . 1619) मायानिशा निवसते कणशो ऽपि याव
दात्मारविन्दसरसीषु विकासलक्ष्मीम् । तावत्कथं किल दधातु मनो रविन्द
पण्डो विकल्पमृगलाञ्छनंपादजुष्टः ॥ १२ 1620) लोभकीलपरिचिह्नितं मनःकूपकं परिहरन्ति दूरतः ।।
अन्त्यजातिसरसीमिव द्रुतं हारिता गुणगणप्रवासिनः ॥ १३ 1621) योऽत्यन्तोत्थितधूलिसंचय इव व्यावृत्तिकृच्चक्षुषां
बाहयान्तर्गतवस्तुषु प्रतिपदं सर्वोज्झनैः सर्वतः। सत्संगैश्च शमाम्बुवृष्टिभिरपि स्वाध्याययोगैरपि
तं क्रोधादिगणं ततः शमयताच्छान्तश्रियामृद्धये ॥१४ जिस प्रकार रोगी मनुष्य अनेक प्रकार की औषधिका सेवन करता हुआ भी यदि अपथ्य-अहितकर भोजनादि - का सेवन करता है तो वह उस रोग से मुक्त नहीं होता है,उसी प्रकार मनुष्य ध्यान, संयम, शम ओर श्रुत आदि का आराधन करता हुआ भी यदि वह क्रोध को प्राप्त होता है तो वह उक्त ध्यानादि से रहित ही होता है। (क्रोध के होनेपर उस के वे सब व्यर्थ सिद्ध होते हैं) ॥ १० ॥
___ अभिमानरूप वायु के वशवर्ती मनुष्योंरूप वृक्षों के मध्य में यदि मानरूप वनाग्नि की ज्वाला जलती है तो उन के ऊपर दुखरूप आतप को दूर करनेवाली हितरूप कोमल पत्तों की पंक्ति कैसे उत्पन्न हो सकती है ? ॥ ११ ॥
जब तक आत्मारूप कमलों के सरोवर में थोडोसी भी मायाव्यवहाररूप रात्रि निवास करती है तब तक विकल्पों रूप चंद्रकिरणों से सेवित मनरूप कमलों का समूह कैसे विकास की शोभा को धारण कर सकता है ? ॥ १२ ॥
गुणसमूहरूप पथिक थक कर के लोभरूपो खील से चिन्हित मनरूप कुएं को चाण्डाल के तालाब के समान दूर से शीघ्र ही छोड़ देते हैं। (अभिप्राय यह है कि लोभ के कारण मनुष्य के सब उत्तम गुण नष्ट हो जाते हैं) ॥ १३॥
जिस प्रकार अतिशय ऊँची उटी हुई धूलि का समूह बाहय और अन्तरंग वस्तुओं के
१०) 1 PD° संयमश्रमश्रुता । १२) 1 स्तोका पि. 2 चन्द्र :. 3 स्पर्शतः । १३) 1 मुनयः पक्षिणश्च । १४) 1 क्रोधादिगण:. 2 शमयतु । .
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