________________
४०९
४०९
-२०. १०३] - उक्तानुक्तशेषविशेषसूचकः - 1611) सम्यक्त्वं घ्नन्त्यनन्तानुबन्धिनस्ते कषायकाः ।
अप्रत्याख्यानरूपाश्च देशव्रतविघातिनः ॥ ८*१ 1612) प्रत्याख्यानस्वभावाः स्युः संयमस्य विनाशकाः ।
चारित्रे तु यथाख्याते कुयुः संज्वलनाः क्षतिम् ॥ ८*२ 1613) दृषद्भूमिरजोवारिराजिभिः क्रोधतः समात् ।
___श्वभ्रंतिर्यनदेवेषु जायते नियतं पुमान् ॥९ 1614) शिलास्तम्मास्थिसाइँधावेत्रवृत्तिद्धितीयकः'।
अधःपशुनरस्वर्गगतिसंगतिकारणम् ॥ ९*१ . 1615) वेणुमूलैरजाश गर्गोमूत्रैश्चामरैः समाः ।
माया तथैव जायेत चतुर्गतिसमृद्धये ॥ ९*२ 1616) क्रिमिनीलीवपुलपहरिद्रारागसंनिमः ।
लोभः कस्य न जायेत तद्वत्संसारकारणम् ॥ ९*३
जो अनन्तानुबन्धी कषाय हैं वे सम्यक्त्व का घात करते हैं, अप्रत्याख्यान रूप कषाय देशव्रतका घात करते हैं, प्रत्याख्यान स्वभाववाले कषाय संयम - महाव्रत - के नाशक हैं, तथा संज्वलन कषाय यथाख्यात चरित्र के विषय में हानि को उत्पन्न करते हैं - उसे उत्पन्न नहीं होने देते हैं ॥ ८*१-२॥
पाषाण, पृथिवी, धूलि और पानी की रेखा के समान क्रोधसे प्रॉणी क्रमशः नरक तिर्यञ्च, मनुष्य और देवोंमें उत्पन्न होता है, यह निश्चित है ॥ ९ ॥
पाषाण का स्तम्भ, हड्डी, गोली लकडी और बेत इनके समान जो उत्तरोत्तर कठोरतासे हीन होती हुई द्वितीय कषाय - मान कषाय-है, वे क्रम से नरकगति, पशुगति, मनुष्यगति और देवगति को कारण होती है ॥ ९.१॥
बाँस की जड, बकरी के सोंग, गोमूत्र और चामर इन के समान जो माया कषाय है वह क्रम से नरकादि रूप चारों गतियोंकी समृद्धि का कारण है ॥९२॥
लाख का रंग, नीली का रंग, शरीर का मल और हलदी का रंग इन के समान जो लोभ है वह उक्त क्रोधादि के समान किस के लिये संसार का कारण नहीं होता ? अर्थात् वह भो क्रम से नरकादि का कारण होता है ॥ ९॥३॥
८*१) 1 PD°त्याख्यानानुरूपाः स्वदेशव्रत. 2 व्रतघातिनः । ८*2) 1 भवेयुः. 2 विनाशम् । ९) 1P°धारिराजीभिः, पाषाणरेखाभूमिरेखाधुलिरेखाजलरेखासदृशाः. 2 नरकतिर्यङमनुष्यदेवगतिषु गमनम् । ९.१) 1 मानकषायः । ९*२) 1 PD° गोमूश्या चामरैः । ९२३) 1 PD° कृमि. 2 नीलवडी. 3 शरीरलेप ।
५२