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________________ ४०८ - धर्मरत्नाकरः - [२०. ८कषन्ति संतापयन्ति दुर्गतिसंपादनेनात्मानमिति कषायाः क्रोधादयः । अथवा यथा विशुद्धस्य वस्तुनः कषायाः कालुष्यकारिणस्तथा निर्मलस्यात्मनो मालिन्यहेतुत्वात् कषाया इव कषायाः । तत्र स्वपरवधाभ्यामात्मेतरयोरपायोपायानुष्ठानमशुभंपरिगामजनको वा अनुष्ठानप्रबन्धः क्रोधः । विद्याविज्ञानैश्वर्यादिभिः पूज्यपूजाव्यतिक्रमहेतुरहंकारः । युक्तिदर्शने ऽपि दुराग्रहापरित्यागो वा मानः । मनोवावकायक्रियाणामयाथातथ्यात्परवञ्चनाभिप्रायेण प्रवृत्तिः ख्यातिपूजालामाघभिवेशमयी माया। चेतनाचेतनेषु वस्तुषु चित्तस्य मोहान्ममेदं भावरतदभिवृद्धयाशयो वा महानसंतोषः क्षोभो वा लोभः॥ जाती है, गमनादिक कार्यों में जो प्रयत्नपरता - प्राणिरक्षण का प्रयत्न - रहती है, तथा लोक शुद्धि की सहकारिता-विशुद्ध लोकव्यवहार – के अनुसार जो आचरण किया जाता है, इसे प्रमादरहित मुनिजनों ने समिति का पालन कहा है ॥ ८ ॥ ___जो नरकादि के दुख को प्राप्त करा कर आत्मा को ' कषन्ति' अर्थात् संतप्त करते हैं वे कषाय हैं। जो क्रोध, मान, माया ओर लोभ के भेद से चार हैं । अथवा जिस प्रकार कषायवटवृक्ष का दूध - किसी निर्मल वस्तु को मलिन किया करता है उसी प्रकार उक्त कषाय के ही समान निर्मल आत्मा को मलिनता के कारण होने से क्रोधादिकों को भी कषाय कहा जाता है। अपने ओर पर के वधद्वारा अपने ओर दूसरे का अपाय और उपाय करना (?) इसे क्रोध कहते हैं। अथवा अशुभ परिणामों को उत्पन्न करनेवाला जो अनुष्ठान प्रबन्धपरम्परा-है उस को क्रोध कहते हैं। जो विद्या गायनादि में कुशलता,विज्ञान-जीवादिक तत्त्वोंका ज्ञान और ऐश्वर्य आदि के द्वारा जो पूज्य पुरुषों की पूजा के उल्लंघन का कारण होता है, वह अहंकार है । अथवा युक्ति को देखते हुए भी जिस के कारण दुराग्रह को नहीं छोडा जाता है उसे मान कहते हैं । मन, वचन और शरीर को क्रियाओं को अयथार्थता-विपरीतता – के कारण जो दूसरे को फँसाने के अभिप्राय से प्रवृति की जाती है और जिस में अपनी ख्याति, पूजा और लाभादि का अभिनिवेश - अभिप्राय - रहता है ऐसी समस्त प्रवृत्ति को माया कहते हैं । चेतन-दास-दासी व पशु आदिक तथा अचेतन - रत्न, घर व वस्त्रादिक – पदार्थों में मोह के वश जो ' यह मेरा है ' ऐसा मन का अभिप्राय होता है उन चेतनाचेतन पदार्थोंकी वद्धि की जो चाहना होती है, अतिशय असंतोष जो बना रहता है तथा इच्छानुसार उनकी प्राप्ति व वृद्धि के न होनेपर जो क्षोभ होता है, इसका नाम लोभ है। गद्यम्) 1 वस्त्र स्य. 2 ... ... ... प्रभृति कषाया:. 3 हरडादय:. 4 P°मात्मतरयोरसरपरिणाम. 5P वित्तस्य।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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