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________________ -२०.८] 1606 ) अथवा - - उक्तानुक्तशेष विशेष सूचकः अन्तर्बहिर्म लोद्रेकादात्मनः शुद्धिकारणम् । शारीरं मानसं कर्म तपः प्राहुस्तपोधनाः ।। ४* १३ 1607 ) व्रतानां धारणं दण्डत्यागः' समितिपालनम् । कषायनिग्रहो ऽक्षाणां जयः संयम इष्यते ।। ५ 1608 ) अस्य व्याख्या जन - भङ्गातिचार विवर्जनेन गृहीत पूर्वप्रतिपालनं यत् । मनोविशुद्धया क्रियते महद्भिस्तद्धारणं वाञ्छितसिद्धिहेतुः ॥ ६ 1609 ) दुश्चिन्तनं न क्वचिदेव कुर्यात्पापाभिलाषं च सुदुष्टचेष्टाम् । मनोवचःकायसमाश्रयं तद्व्रती स्वकीयवत्तपोषणार्थम् ॥ ७ 1610 ) यत्प्राणिरक्षणपरत्वमथात्मवत्स्या द्याच प्रयत्नपरता गमनादिके चे । या लोकशुद्धिसहचारितया प्रवृत्तिस्तद्वया कृतं ' समितिपालनमप्रमत्तैः ॥ ८ ४०७ जिस शारीरिक अथवा मानसिक क्रिया के द्वारा आत्मा की अन्तरंग और बहिरंग दोनों ही प्रकार के मल की वृद्धि से शुद्धि होती है उसे तपोधन तपरूप धन के धारक महर्षि तप कहते हैं ॥ ४* १३॥ अहिंसादिक पाँच व्रतों का धारण करना, मन, वचन और शरीरको अशुभ प्रवृत्ति को छोडना, पाँच समितियोंका पालन करना, कषायों का निग्रह करना और इन्द्रियों को जीतना; इसे संयम माना जाता है ॥ ५ ॥ इसकी व्याख्या - पूर्व में ग्रहण किये गये व्रतों का जो उन के सर्वथा नाश अथवा अतिचारों से रहित पालन किया जाता है तथा महापुरुष मन की निर्मलतापूर्वक जो उन को धारण करते हैं, वह इच्छित सिद्धि का कारण होता है ॥ ६ ॥ व्रती श्रावक मन में किसी के भी विषय में दुष्ट विचार नहीं करता है । वह पाप की अभिलाषा व दुष्ट चेष्टा को भी नहीं करता है । इस प्रकार वह अपने व्रत को पुष्ट करने के लिये मन, वचन और काय के आश्रित दुष्ट व्यवहार को नहीं करता है ॥ ७ ॥ अन्य प्राणियों को अपने ही समान समझकर जो उन के संरक्षण में तत्परता रखी ५ ) 1 अशुभमनादि D अचारत्यागः । ६ ) 1D पालनं । ८ ) 1P गमनादिषु रच, D गमनादिकेषु. 2 कथितम् ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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