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- धर्मरत्नाकरः1601 ) अधोमध्योललोकेषु चतुर्गतिविचारणम् ।
शास्त्रं करणमित्याहुरनुयोगपरीक्षणम् ॥ ४*८ 1602 ) ममेदं स्यादनुष्ठानं तस्यायं रक्षणक्रमः ।
इत्थमात्मा चरित्रार्थे ऽनुयोगश्चरणाभिधः ॥ ४*९ 1603 ) जीवाजीवपरिज्ञानं धर्माधर्मावबोधनम्।
बन्धमोक्षजता चेति फलं द्रव्यानुयोगतः ॥ ४*१० 1604) जीवस्थानगुणस्थानमार्गणास्थानगो' विधिः ।
चतुर्दविधो बोध्यः स प्रत्येकं यथागमम् ॥ ४*११ 1605 ) अनिगू हितवीर्यस्य कायक्लेशस्तपः स्मृतम् ।
तच्च मार्गाविरोधेन गुणाय गदितं जिनैः॥ ४*१२
जिस शास्त्र में अधोलोक, मध्यलोक और ऊर्ध्व लोक के आश्रयसे चारों गतियोंका विचार किया जाता है। उसे चरणानुयोग कहते हैं । इस में चार गतियों के विषय में प्रश्नोत्तरपूर्वक परीक्षण – विचार-किया जाता है ॥ ४*८ ॥
मेरा यह अनुष्ठान है - मुझे इसका पालन करना चाहिये, तथा यह उस के संरक्षण का उपाय है; इस प्रकार चारित्र को विषय करनेवाला जो अनुयोग है उसका नाम चरणानुयोग है ॥ ४५९॥
जीव और अजीव के परिज्ञान के साथ जो धर्म और अधर्म का विवेक तथा बन्ध और मोक्ष का अवबोध होता है; यह द्रव्यानुयोग का फल है । (अभिप्राय यह है कि जिसमें जीव अजीव, धर्म, अधर्म, और बन्ध-मोक्षादि की प्ररूपणा की जाती है उसे द्रव्यानुयोग जानना चाहिये ) ॥ ४५१० ॥
. जीवस्थान - जीव समास, गुणस्थान और मार्गणास्थान इनका अनुसरण करनेवाला जो विधान है वह प्रत्येक चौदह प्रकारका है - इन में प्रत्येक के चौदह चौदह भेद समझना . चाहिये। उन सब का परिज्ञान आगम के आश्रय से प्राप्त होता है ॥ ४*११ ॥
___अपनी शक्ति को न छिपाते हुए जो कायक्लेश किया जाता है उसे तप कहते है। वह जब रत्नत्रयस्वरूप मोक्षमार्ग के अथवा आगमोक्त विधि के अविरुद्ध किया जाता है तब वह लाभप्रद - हितकारक - होता है, ऐसा जिनेन्द्र के द्वारा कहा गया है ॥ ४५१२ ॥
४०११) 1 गतः. 2 द्रव्यानुयोगः । ४.१२) 1 तपः।