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________________ -२०. ४*७] - उक्तानुक्तशेषविशेषसूचकः - __1596 ) अस्यायमर्थः - स्नपनं पूजनं स्तोत्रं जपो ध्यानं श्रुतस्तवः । पोढा क्रियोदिता सद्भिर्देवसेवासु गेहिनाम् ॥४*३ 1597) आचार्योपासनं श्रद्धा शास्त्रार्थस्य विवेचनम् ।। तक्रियाणामनुष्ठानं श्रेयःप्राप्तिकरो गणः ॥ ४१४ 1598) शुचिर्विनयसंपन्नस्तनुचापलवर्जितः। अष्टदोषविनिर्मुक्तमधीतां गुरुसंनिधौ ॥ ४१५ 1599) अनुयोगगुणस्थानमार्गणास्थानकर्मसु । अध्यात्मतत्त्वविद्यायाः पाठः स्वाध्याय उच्यते ।। ४*६ 1600 ) गृही यतः स्वसिद्धान्तं साधु बुध्येत धर्मधीः । प्रथमः सो ऽनुयोगः स्यात् पुराणचरितादिकः ॥ ४*७ इसका यह अर्थ है - स्नपन - जलादिक से अभिषेक, पूजन, स्तोत्र, जप, ध्यान और श्रुतस्तव-श्रुतज्ञान की स्तुति इस प्रकार सत्पुरुषों ने गृहस्थों के देवसेवा - पूजाविधि-में छह कर्म कहे हैं ॥ ४*३ ॥ आचार्यकी सेवा, उनके ऊपर श्रद्धा, शास्त्रार्थ का विवेचन, शास्त्र में अथवा आचार्य के द्वारा निर्दिष्ट क्रियाओं का अनुष्ठान - आचरण करना, यह कल्याण की प्राप्ति करानेवाला गुणसमुदाय है ॥ ४.४ ॥ (शिष्य को) स्नानादि से पवित्र, विनय से परिपूर्ण, शरीर की चंचलता से रहित और (ग्रन्थ को अपूर्णता, अर्थ को अपूर्णता, उभय ग्रन्थ व अर्थ की अपूर्णता, योग्य काल का अविचार, विनय का अभाव, उपधान का अभाव, बहुमान का अभाव और निन्हव (पुरुषा. ३६) इन) आठ दोषों से होन हो कर गुरु के समीपमें अध्ययन करना चाहिये ।। ४*५ ॥ चार अनुयोग, चौदह गुणस्थान, चौदह मार्गणास्थान और आठ कर्म; इन का आश्रय लेकर अध्यात्मविद्या का पढना, इसे स्वाध्याय कहते हैं ॥ ४*६ ॥ __धर्म में बुद्धि रखनेवाला-धर्मात्मा-गृहस्थ जिस अनुयोग के आश्रय से अपने सिद्धान्त. को भली भाँति जान सकता है वह पुराण और चरित आदिस्वरूप प्रथमानुयोग है ॥४७|| ४५४) 1 तेषामाचार्याणाम् । ४५५) 1 PD तच्च चापल' ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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