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४०४ :- धर्मरत्नाकरः
[२०. ३1592) पुंसो यथा संशयिताशयस्य दृष्टा न काचित्सफला प्रवृत्तिः ।
धर्मस्वरूपे ऽपि तथाविधस्य कीदृक्कथं वास्तु कदा प्रवृत्तिः ॥ ३ 1593) येभ्यः समुद्भवति ये परिवर्धयन्ति
ये पान्ति शीर्णमपि धर्ममथोद्धरन्ति । तेषां विमानन मवेत्य कुतो ऽपि मोदी
यो धर्महाँ स हि न ते रहितो ऽस्ति धर्मः ॥ ४ 1594 ) तथा च
यो मदात्समयस्थानामवलावेन मोदते ।
स नूनं धर्महा यस्मान धर्मो धामिकैविना ॥ ४*१ 1595 ) देवसेवा गुरूपास्तिः स्वाध्यायः संयमस्तपः ।
दानं चेति गृहस्थानां षट्कर्माणि दिने दिने ॥ ४*२
___ बातों में जिस का अभिप्राय व्यवहारकार्य के विषय में संशययुक्त होता है उसकी कोई भी प्रवृत्ति सफल नहीं होती है । इसी प्रकार जो धर्म के स्वरूप में भी संशययुक्त होता है उसकी प्रवृत्ति किस प्रकार, कैसे, कहां और कब होती है? ॥ ३ ॥
जिन पुरुषों से धर्म की उत्पत्ति होती है, जो उसे वृद्धिंगत करते हैं, जो उसका संरक्षण करते हैं तथा जो नष्ट होते हुए उस धर्म का पुनरुद्धार करते हैं ऐसे धार्मिक जनों के कहीं से भी होनेवाले अपमान को सुनकर जो मन में आनंदित होता है वह धर्म का घातक है । क्यों कि धार्मिक पुरुषों के विना धर्म नहीं रह सकता है ॥ ४ ॥
और भी वैसा
जो गर्व से धर्मनिष्ठ लोगों के अपमान से आनंदित होता है वह मानव धर्मघातक है। क्योंकि धार्मिक पुरुषों के विना धर्म नहीं रहता है ॥ ४*१ ॥
- देवसेवा-जिनपूजा, गुरुपास्ति-गुरुकी सेवा, स्वाध्याय, संयम - प्राणियों का पालन और इन्द्रियों का स्वाधीन रखना तप और दान; ये गृहस्थों के प्रतिदिन करने योग्य छह कार्य
- ४) 1 रक्षन्ति. 2 अपमानम्. 3 ज्ञात्वा. 4 धर्मविघातकः । ४*१) 1 श्रावकाणाम्. 2 धर्मविनाशकः ।