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________________ [२०. विंशतितमोऽवप्तरः] [ उक्तानुक्तशेषविशेषसूचकः] 1588 ) उक्तानुक्तप्रकाराणां सूचको ऽवसरो ऽन्तिमः । __ग्रन्थार्थस्मृतिमायान्ति बाला अपि विबुध्य यम् ॥ १ 1589) अंगप्रविष्टं गदितं श्रुतं हि प्रकीर्णवाक्यार्थपरोक्तिरन्यत । अनुक्तसूक्तामृतसारबिन्दुस्वादप्रवीणैर्मुनिभिः प्रकीर्णम् ॥ २ 1590 ) अदुर्जनत्वं विनयो विवेकः परीक्षणं तत्त्वविनिश्चयश्च । एते गुणाः पञ्च भवन्ति यस्य स आत्मवान्' धर्मकथापरः स्यात् ॥२*१ 1591) असूयकत्वं' शठताविचारो दुराग्रहः सूक्तिविमानना च । पुंसाममी पञ्च भवन्ति दोषास्तत्त्वावबोधप्रतिबन्धनाय ॥ २*२ यह अन्तिम (वीसवाँ) अवसर उक्त और अनुक्त विषयों का सूचक है । इस अवसर को जानकर बालक भी ग्रन्थ और अर्थ का स्मरण कर सकते हैं ॥१॥ ___ जिस का उल्लेख पूर्व में नहीं किया गया है तथा जो पूर्व में भली भाँति कहा जा चुका है ऐसे श्रुतरूप श्रेष्ठ अमृत के बिन्दुओं के स्वाद में निपुणता को प्राप्त हुए मुनियोंने एक श्रुत को अंगप्रविष्ट और इधर-उधर फैले हुए वाक्यार्थ के कथन को अन्य प्रकीर्णक श्रुत कहा है ॥२॥ ___ जिस के अदुर्जनपना-सज्जनता-विनय, विवेक, कार्याकार्यविचार और वस्तुस्वरूप का निश्चय ये पाँच गुण होते हैं वह आत्मवान् – आत्मस्वरूप जाननेवाला पुरुष - धर्मकथा के कहने और सुनने के योग्य होता है ॥ २१ ॥ असूयकता-दूसरे की उन्नति को नहीं सह सकना,शठता-कपटीपना, अविचार, दुराग्रह और सुन्दर वचनों की अवहेलना करना; ये पाँच दोष पुरुषों के तत्त्वज्ञान में बाधक हैं ॥२२॥ २) सर्गः। २२१) 1 P° तस्यात्मवान् । २०२) 1 असहनशीलत्वम्, ईर्षत्वं वा. 2 अवगणना ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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