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- सल्लेखनावर्णनम् - 1565) विद्युत्पातं गृहपतिगृहं क्रामतो लाभतो मे
ऽलाभः श्लाघ्यं तप इति मुदा मन्यमानस्य साधोः । दातुर्दानं प्रति समतया पश्यतो भक्त्यभक्ती
संक्लेशाद्यास्खलितमनसो ऽलाभबाधाजयो ऽस्ति ॥ २९ 1566 ) सर्वव्याध्यशुचिप्रकारभवनं रम्यं च धर्मस्थिते
'धर्मद्धौं निरतस्य रोगनिवहस्तक्यं वपुः क्रामति । दिद्धिप्रभवाच्चिकित्सनबले त्वस्तप्रतीकारिणः
केषां चित्तचमत्कृति न कुरुते व्याधिप्रबाधाजयः ॥ ३० 1567 ) चर्यानिषद्याशयनक्रियास्वसंक्लेशिनः प्राणिकृपापरस्य।
बाधे वितृण्याशितशर्करायैस्तृणादिपीडाविजयः प्रशस्यः ॥ ३१
__ जो साधु बिजली के गिरने के समान शीघ्रता से गृहस्वामी के घर के भीतर प्रविष्ट होकर ' मेरे लिये आहार के लाभ की अपेक्षा उसका न मिलना ही प्रशंसनीय तप है ' इस प्रकार मानता हुआ दाता को दान के प्रति भक्ति अथवा अभक्ति को हर्षपूर्वक समता भाव से देखता है तथा जिसका मन संक्लेशादि के वश हो कर मार्ग से स्खलित नहीं होता है, वह अलाभपरीषह की बाधा का जीतनेवाला होता है ॥ २९॥
यह शरीर सब प्रकार के रोगों और अपवित्रता का घर है, वह यदि रमणीय है तो रत्नत्रयस्वरूप धर्मका आधार होने से है । जो मुनि धर्मरूप धनसम्पत्ति में आसक्त है उसका शरीर रोगों के समूह से घिरकर चल देता है- नष्ट हो जाता है । दिव्य ऋद्धि के प्रभाव से उस के चिकित्सा का-रोग समूह के प्रतिकार का-सामर्थ्य होनेपर भी जो उसका कुछ भी प्रतीकार नहीं करता है, उस साधु का रोग की प्रबल बाधा को जीतना किनके चित्त में आश्चर्य को नहीं उत्पन्न करता है ? अर्थात् उसका यह रोगपरीषह का जीतना सब के लिये आश्चर्यजनक होता है ॥३०॥
जो चलना, बैठना और सोना इन क्रियाओं में संक्लेश को न प्राप्त हो कर प्राणिरक्षा में तत्पर रहता है, ऐसा मुनि विशिष्ट घाससमूह (कोस आदि) और तीक्ष्ण बालुका आदिकों की पीडा के होने पर उसे सहता है अतएव उस का वह तुणस्पर्शपरीषहविजय प्रशंसा नीय है ॥ ३१ ॥
२९) 1 उल्लङघतः भरमत: वा. 2 हर्षेण. 3 वें । ३०) 1 वपुः. 2 धर्मऋद्धौ विषये. 3 प्लान्य' मानम्. 4 याति. 5 दिव्यऋद्धि, 6 मुनेः । ३१) 1........दितृणसमूह।