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________________ [१९. २६ ३९४ - धर्मरलाकरः1562) निन्दावज्ञापरुषवचनासहय निर्भर्त्सनादि वाक्यं कोपज्वलनपवनं हेतुजातं विनापि । श्रुत्वा शक्तावपि न तनुते तेषु कालुष्यलेशं यः ख्यातो ऽसौ प्रशमरसिकः क्रोधबाधासहिष्णुः॥२६ 1563) एतैर्न काचन कृताफ्कृतिर्ममैव कर्मेदमित्थमिति भावयतो ऽबले ऽपि । हेतु विनापि घनलोष्टकशादिघाते ख्यातः सुखासुखसमस्य वधावमर्शः ॥ २७ 1564) आहारभेषजनिवेशनिमित्तमङ्ग संज्ञातिदीनवचनास्यविवर्णताभिः । ग्लानो ऽतिदुश्वरतपोभिरयाचमानो याज्जापरीषहजयी विजिताक्षवृत्तिः ॥ २८ जो मुनि बिना किसी कारण के ही निन्दा, तिरस्कार व कठोर भाषण और असहय झिडकने आदिरूप वाक्य को, जो कि कोपरूपी अग्नि को प्रज्वलित करने के लिये वायु का काम करता है, सुनकर भी तथा प्रतिकार करनेरूप सामर्थ्य के होनेपर भी उन के ऊपर लेश मात्र भी कलष ता - क्रोधादिरूप मलिनता - को नहीं धारण करता है, ऐसा प्रशम गुण का रसिक मुनि क्रोधबाधा को सहनेवाला कहा गया है ॥ २६ ॥ कारण के बिना भी घन पत्थर अथवा चाबुक आदि से ताडन करनेपर भी सुखदुःख में समता भाव को प्राप्त साधु ‘इन के द्वारा मेरा कुछ भी अपकार नहीं किया गया है यह तो मेरे प्रबल कर्मका प्रभाव है ऐसा चिन्तन करता है वह वधपरीषहका सहनेवाला कहा गया है ॥ २७ ॥ जो अतिशय कठिन तपश्चरणों से रुग्ण होता हुआ भी आहार, औषध या वसतिका के लिये शरीर से संकेत, अतिशय दीनवचन एवं मुख की विवर्णता - कान्तिहीनता - आदि कारणों से याचना नहीं करता है वह इन्द्रियवृत्ति को जीतनेवाला मुनि याचनापरीषहविजयी होता है ॥२८॥ २७) 1 विरुद्धता. 2 असमर्थे जनेऽपि । २८) 1 मुख. 2 इन्द्रियप्रसरः ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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