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________________ [१९. ३२ - धर्मरत्नाकरः - 1568 ) यः स्वेदाक्तावयवखचितै रेणु पुजैः सजल्लो ग्रीष्मे कच्छुप्रभृतिभिरुपारूढकण्डूव्यथो ऽपि । आप्कायस्याविवधिषुरसून प्राणिनः स्नाति नैत द्यावज्जीवं स मलविजयी निर्मलो भावशौचात् ॥ ३२ 1569 ) श्लाघ्याः सर्वविदीव भक्तिरसिका मूर्खे ऽपि मिथ्यादृशः पूजां को ऽपि करोति नोग्र तपसो विज्ञाततत्त्वस्य मे । भक्ताः सन्ति तपस्विनः सुरवराः सत्या न हीयं श्रुतिः स्यात्सत्कारपुरस्क्रियातिसहनं मन्ये ऽस्ति नैवं यदि ॥ ३३ 1570) अहं विद्वानाद्यः कविरहमहं न्यायनिपुणो मयाधीताः सर्वे स्वपरसमया वादिविसरः। जितो राज्ञामग्रे पशुवदपरः पण्डितजनः किमाभातीत्येवं मदमभजतो धीमदजयः ॥ ३४ जो साधु ग्रीष्मकाल में पसीनेसे परिपूर्ण अवयवों में व्याप्त हुए धूलिपुंजसे मलयुक्त होता हुआ कच्छ (खुजली) आदि चर्म रोगों से पीडित रहता है तो भी जलकायिक जीवों के संरक्षण की इच्छा से आजन्म स्नान नहीं करता है, वह परिणामों की निर्मलता से भावशौच को धारण करनेवाला निर्मलमुनि मलपरीषहपर विजय प्राप्त करता है |॥ ३२॥ ... भक्ति में आनन्द माननेवाले मियादृष्टि जन मूर्ख के विषय में भी सर्वज्ञ के समान प्रशंसनीय भक्ति किया करते हैं । परन्तु घोर तपश्चरण में तत्पर और तत्त्व का ज्ञाता होने पर भी मेरी कोई भी भक्ति नहीं करता है । 'उत्तम देव तपस्वी के भक्त हुआ करते हैं, यह लोकोक्ति सत्य नहीं है' इस प्रकार का विचार यदि मुनि के अन्तःकरण में प्रादुर्भूत नहीं होता है तो वह सत्कार पुरस्कार को पीडा को सहता है, ऐसा मैं मानता हूँ ॥ ३३ ॥ ... ... . मैं विद्वान् हूँ, मैं आद्य कवि हूँ, न्याय में निपुण हूँ, मैंने अपने तथा परमत के ग्रन्थ पढ डाले हैं, राजाओं के आगे सर्व वादिसमूह को जीता है, पशु के समान अज्ञानी इतर पंडित जन मेरे आगे क्या शोभा पा सकते हैं; इस प्रकार के अभिमान को जो मन में नहीं उत्पन्न होने देता है, वह प्रज्ञापरीषह को जीतता है ॥ ३४ ॥ ३२) 1 अवधाभिलाषुकः. 2 प्राणान्. 3 भावस्नानात् । ३३) । सर्वज्ञे. 2 हि स्फुटम् इ यं श्रुतिः. 3 न एवं पूर्वोक्तं यदि ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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