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________________ -१९. १२] - सल्लेखनावर्णनम् - ३८७ 1539 ) स्नेहं विहाय बन्धुषु मोहं विभवेषु कलुषतामहित । गणिनि च निवेद्यं निखिलं दुरीहितं तदनु भजतु विधिमन्त्यम् ॥१११११ 1540 ) अशनं क्रमेण हेयं स्निग्ध पानं ततः खरं चैव । तदनु च सर्वनिवृत्ति कुर्याद् गुरुपञ्चकस्मृतौ निरतः॥११*१२ 1541 ) कदलीघातवदायुः कृतिनां सकृदेव विरतिमुपयाति । तत्र पुन व विधिर्यदेवे क्रमविधिर्नास्ति ॥ ११*१३ 1542 ) जिने वसति चेतसि त्रिभुवनैकचिन्तामणौ कृते ऽनशनसद्विधौ सकलसंगसंन्यासतः । दुरीहितनिराकृतौ भवतु यत्र तत्रापि में। मतिः समयसंगतेति ननु तीर्थमाचक्ष्यते ॥ १२ ( आत्महितैषी भव्य जीव को) बन्धुजनों के विषय में स्नेह को धनसंपत्ति आदि के विषय में मोह को और शत्रु के विषय में कालष्य (वैरभाव) को छोडकर अपने द्वारा जो कुछ भी दुष्प्रवृत्ति- प्रतिकूल आचरण- ही है उस सब के विषय में आचार्य से निवेदन करते हुए अन्तिम विधि का- सल्लेखना का- आराधन करना चाहिये ॥ ११*११ ॥ ___ सल्लेखना विधि में प्रथमतः भात व रोटी आदि अन्न को, तत्पश्चात् क्रम से स्निग्धपान, दूध आदि चिक्कण पेय वस्तुओं को और फिर खरपान - छाछ व उष्णजल आदि को छोडकर अन्तमें पंचपरमेष्ठो के स्मरण में तत्पर हो कर सभी कुछ छोड देना चाहिये ॥ ११*१२ ॥ जब पुण्यशाली मनुष्योंको आयु केले के स्तंभ के विनाश के - समान एक ही बारशोर हो-नाश को प्राप्त होती है, तब यह विधि - पर्वोक्त क्रमविधि-सम्भव नहीं है, क्यों कि, देव को प्रतिकूलता होने पर विधि को सम्भावना नहीं रहती है। (अभिप्राय यह है कि यदि अकस्मात् अकालमरण का अवसर प्राप्त होता है तो उस समय क्रमशः अन्नादि के त्याग की विधि को न अपनाकर एक साथ सबका हो त्याग कर देना चाहिये) ॥ ११११३ ॥ तोनों लोकों में अद्वितीय चिन्तामणि के समान इच्छित फल को देनेवाले जिनेश्वर जब मेरे हृदय में वास कर रहे हैं, संपूर्ण परिग्रहों का त्याग कर के जब मैंने आहार के त्याग को समोचीन विधि को स्वीकार कर लिया, तथा सर्व पापों का जब मैं निराकरण भी कर चुका हूँ तब मेरा मरण जहाँ कहीं भी हो, तो भी वह चूंकि समयसंगत-शास्त्रसंमतहै। इसीलिये ऐसो मृत्यु को तीर्थ कहा जाता है ॥ १२ ॥ ११११) 1 PD आचार्ये. 2 D कथयित्वा. 3 दुष्टचिन्तनम् . ११*१२) 1 दुग्धादिकम्. 2 जलं ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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