________________
३८६ - धर्मरत्नाकरः -
[ १९. ११५७1535) यो हि कषायाविष्टः कुम्भकेजलधूमकेतुविषशस्त्रैः ।
व्यपरोपयति प्राणांस्तस्य स्यात्सत्यमात्मवधः ॥ ११*७ 1536) नीयन्ते ऽत्र कषाया हिंसाया हेतवो यतस्तनुताम् ।
सल्लेखनामपि ततः प्राहुरहिंसाप्रसिद्धयर्थम् ॥ ११*८ 1537) यमनियमस्वाध्यायास्तपांसि देवार्चनादिविधिदानम् ।
सर्वमिदं विफलं स्यादवसाने चेन्मनो मलिनम् ॥ ११*९ 1538) द्वादशवर्षाणि न पः शिक्षितशस्त्रो रणेषु यदि मुह्येत् ।
किं तस्य शस्त्रविधिना यथा तथान्त यतेः पुरा विरतम् ।। ११*१०
जो मनुष्य कषायों से संतप्त हो कर श्वास को रोधने, पानी में डूबने, अग्नि में पडने, विष भक्षण करने अथवा छुरी आदि शस्त्र से अपने प्राणों को नष्ट करता है, उस के आत्मघात का दोष होता है ॥ ११२७ ॥
इस सल्लेखना में हिंसा की कारणभूत कषायों को चूंकि कम किया जाता है, इसोलिये इस सल्लेखना को अहिंसा को प्रसिद्धि के लिये कहते हैं। (उसका भी विधान आचार्यों द्वारा अहिंसा को सिद्धि के लिये हो किया गया है ) ॥ ११*८ ॥
___ यदि मरण के समय में मन मलिन होता है- कषायाविष्ट होता है- तो फिर यम (आजन्म व्रतपालन), नियम (कुछ कालतक व्रतपालन), स्वाध्याय, सब अनुष्ठान, तपश्चरण देवपूजा आदिकी विधि और दान यह सब अनुष्ठान व्यर्थ होनेवाला है ॥१११९॥ : जिस राजाने बारह वर्ष तक शस्त्रों का अभ्यास किया है वह यदि रण में मोहयुक्त -प्रमादी-होता है, तो जिस प्रकार उसको शस्त्रविधि का- शास्त्राभ्यास का-कुछ उपयोग नहीं है । उसी प्रकार मरणसमय में सल्लेखना से रहित मुनि के पूर्वपरिपालित व्रत का भी कुछ उपयोग नहीं है - वह निरर्थक ही होता है ॥ ११*१०॥
११*७) 1 उच्छ्वासं निरुध्य. 2 अग्निः. 3 विनाशयति । ११*८ ) 1 सल्लेखनाकाले. 2 विनाशहेतु।