________________
-१९. ११*६]
- सल्लेखनावर्णनम् - 1531 ) उपवासादिभिरङ्ग कषायदोषेषु बोधिभावनया ।
तत्सल्लेखनकर्मा [स्वं]पायाद्यत्नवनेवम् ॥ ११७३ 1532 ) इयमेकैव समर्था धर्मस्व मे मया समानेतुम् ।
सततमिति भावनीया पश्चिमसल्लेखना भक्त्या ॥ ११७४ 1533) मरणान्ते ऽवश्यमहं विधिना सल्लेखनां करिष्यामि ।
इति भावनापरिणतो ऽनागतमपि पालयेदिदं शीलम् ॥ ११५५ 1534) मरणे ऽवश्यंभाविनि कषायसेनातनूकरणसारे ।
रागादिमन्तरेण म्रियमाणस्य नात्मघातो ऽस्ति ॥ ११*६
मनुष्य अपने हित की अभिलाषा नहीं करता है तो फिर मृत्यु हरण करनेवाली क्यों न होगी? (वह जीवित को निश्चित हो नष्ट कर देनेवाली है) ॥ ११*२ ॥
सल्लेखना क्रिया में उद्युक्त श्रावक की उपवासादि के द्वारा शरीर को कृश करना चाहिये तथा कषायजनित दोषों के होनेपर रत्नत्रयस्वरूप बोधि को भावना के साथ प्रयत्नशील हो कर उनसे आत्मा का संरक्षण करना चाहिये ॥ ११*३ ॥
केवल यह एक सल्लेखना ही मेरे धर्मरूप धन को मेरे साथ ले जाने के लिये समर्थ है, ऐसा समझकर श्रावक को इस उत्कृष्ट सल्लेखना का सदैव भक्ति से चिन्तन करना चाहिये ॥ ११२४ ॥
मैं मरण के समय विधिपूर्वक सल्लेखना को अवश्य करूँगा, ऐसी भावना से परिणत हो कर श्रावक को भविष्य में संपन्न होनेवाले भी इस शील का - सल्लेखना का पालन करना चाहिये । अर्थात् उस की भावना मन में सतत होनी चाहिये ॥ ११*५ ॥
मरण तो अवश्य होनेवाला ही है, फिर उसमें कषायों की सेना को कुश करना ही श्रेष्ठ है; इस विचार से जो उस सल्लेखना में प्रवृत्त हो कर रागादि के विना मरण के सन्मुख हो रहा है उस के लिये आत्मघात का दोष संभव नहीं है ॥ ११६ ॥
११५३) 1 उपवासादिभिरङगम् अत्यथै शोषयेत्, D अतिशयेन रक्षेत् । १११४ ) 1 श्लेषना [सल्ले खना]. 2 PD°धर्मत्वम् । ११*६) 1 D°मन्तरेण च म्रिय ।