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________________ ३८४ -धर्मरत्नाकरः - [१९. १० 1527) काले क्वचित्परिणतरपि बोधिलामं बद्धोद्यमेन सततं परिलभ्य दैवात् । . आलम्ब्य संयमिजनस्य पदं दुरापं सनीयतां सपदि तत्परिपूर्णभावम् ॥ १० - 1528 ) विशेषोपक्रमो ऽदर्शि बालपण्डितमृत्य्वोः । सामान्योपक्रमश्चैष तत्सिद्वय संपदश्यते ॥११ 1529) अपकृतिरिव या सविधे जनिताखिलकायकम्पनातङ्का । यमदूतीव जरा यदि समागता जीवितेषु कस्तपः ।। ११*१ : 1530) कर्णान्तकेशपाशग्रहणविधिबोधितो ऽपि यदि जराया। ___ स्वस्य हितैषी न भवति तत्कि मृत्युर्न संहर्ता ॥ ११*२ अनुशिष्टि–निर्यापकाचार्य से आराधक के लिये उपदेश । सारणा – दुःखपीडित होने से मोहित हुए आराधक को मोह से छुडाना । कवच-धर्मादि के उपदेश से दुःख निवारण करना। साम्य-जीवित मरण आदिकों में रागद्वेष नहीं रखना। ध्यान - एकाग्र - चिन्ता – निरोध । लेश्याभिनय-कषायों से परिणत मन, वचन व शरीर को प्रवृत्ति । फल - आराधना से साध्यरत्नत्रय - को अन्ततक निभाना ॥ ४-८ ।। - इस प्रकार से जो गृहस्थ भी मुक्तिलक्ष्मी की इच्छा करते हैं उन्हें इस आगमपर श्रद्धा रखकर हीन रत्नत्रय को पूर्ण तया पालन करना चाहिये ॥९॥ किसी काल में-योग्य अवसर प्राप्त होनेपर – निरन्तर प्रयत्न करने से भाग्यवश बोधिलाभ को–रत्नत्रय को - पाकर संयमीजन के दुर्लभ पद का-मुनिधर्मका-आश्रय लेते 'हुए शीघ्र ही उस की पूर्णता को प्राप्त कराना चाहिये ॥१०॥ उपर्युक्त क्रम से मैंने बाल व पंडित के मरण में विशेषता दिखला दी है। अब उसकी सिद्धि के लिये यह सामान्य उपक्रम दिखलाया जाता है ॥ ११ ॥ - यमराज की दूती के समान जो जरा - वृद्धावस्था-अपकार के समान पास में स्थित . हो कर समस्त शरीर को कम्पित करती हुई रोग को उत्पन्न करनेवाली है वह आकर यदि प्राप्त हो गई तो फिर जीवित रहने में कौन-सी तृष्णा है ? (अर्थात् वैसी अवस्था में जब वह अनिवार्य स्वरूप से नष्ट ही होनेवाला है तब उसकी स्थिरता की अभिलाषा से विषयोन्मुख 'होना योग्य नहीं है ॥११११॥ उक्त जरा के द्वारा कानों के समीप में आकर केशपाश के ग्रहण की विधि सेकानों के पास के बालों के श्वेत कर देनेरूप क्रिया से -- प्रबोधित किया जाने पर भी यदि १०) 1 शीघ्रम् । ११) 1 उद्यमः । ११*१) 1 अनुपकारम्. 2 समीपस्था. 3 तृषा, D का तृष्णा।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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