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- सल्लेखनावर्णनम् - 1524 ) एकग्रहालोचनदोषजातगुणप्रदर्शालयसंस्तरेषु ।
निर्यापकादानभुजि प्रकाशे हानौ निवृत्तौ क्षमणानुशिष्टौ ॥७ 1525) श्रीसारणायां कवचे च साम्ये ध्याने च लेश्याभिनये फले च ।
आराधकः प्रेत्यगमप्रतीकत्यागे च कुर्वोत तदोत्तमार्थम् ॥ ८ । कुलकम् । 1526 ) इतीत्थमेतत्समयं प्रतीत्य रत्नत्रयं न्यूनमशेषमेव ।
मुक्तिश्रियं ये परिकामयन्ति ते हयंभाजो ऽपि हि पालयन्तु ॥९
अर्ह- सविचार भक्त प्रत्याख्यान के योग्य होना । लिंग - केशलोच के साथ पिच्छो, कमंडलु और नग्नता को धारण करना । शिक्षा-श्रुताध्ययन करना, विनय - आचार्यादिकों को मर्यादा पालना, ज्ञानादि भावना की जो व्यवस्था है वह ज्ञानादि विनय है, अथवा ज्ञानादि के लिये आचार्यादि की उपासना करना । समाधि-ध्यान अथवा शुभोपयोग में मन को एकाग्र करना । परिणाम - अपने कार्यों का आलोचन करना । विहार-अनियत विहार अनियत क्षेत्र में निवास करना । संगोज्झन - परिग्रहों का त्याग करना । गुणश्रयणी - उत्तम परिणामों को धारण करना। संभावना - अशुभ परिणामों का त्याग करना । सल्लेखना - शरीर और कषायों को समीचीनतया कम करते जाना। क्षमा- गण से क्षमा माँगना । विमार्गणा - अपने को रत्नत्रय की शुद्धि और समाधिमरण प्राप्त करने के लिये समर्थ सूरि को ढंढना। सुस्थितआचार्य - जो कि परोपकार करने में और अपने ज्ञानाचारादि कार्यों में निर्दोषता से स्थिर रहते हैं । निरूपण-आराधना की निर्विघ्न सिद्धि होने के लिये देश राज्यादि के कल्याण का विचार करना । उपसर्पण - आचार्य को आत्मसमर्पण करना । प्रश्न- यह आराधना को चाहनेवाला यति वा श्रावक आया है इस के ऊपर हम अनुग्रह करें वा न करें, ऐसा संघ से पूछना। प्रतिपृच्छना - एक ग्रह - संघको पुनः पूछकर उस की अनुमति से एक क्षपणक का स्वीकार करना । आलोचन -- गुरु के पास अपने दोषों का उल्लेख करना । दोषजातगुणप्रदर्शनआलोचना न करने से दोष और उस के करने से गुणप्राप्ति होती है, ऐसा कथन करना । आलय-वसति, जहां सल्लेखना धारण की जाती है ऐसा स्थान । संस्तर- भूमि, तृण व फलक आदिकी शय्या। निर्यापकादान - आराधक की समाधि - सल्लेखना में सहायक वैयावृत्य करनेवाला परिचारक सम्ह । जिप्रकाश- आहार प्रगट करना-आराधक को आहार दिखाना। हानि - क्रम से आहार का त्याग करना । निवृत्ति - तीन प्रकार के आहार का त्याग करना । क्षमण - दूसरे के अपराधों की क्षमा करना ।
८) 1 P फुले। ९) 1 स्तोकम्. 2 गृहस्थाः ।