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________________ ३८२ - धर्मरत्नाकरः - [१९. ३1520 ) त्यागो ऽङगयष्टेगहनं न गन्त्र्याश्चारित्रमेतद्गहनं गरीयः ।। न नश्वर स्थास्तुं न भेद्य भेदि तया समं नेयमहो कथं स्यात् ॥ ३ 1521 ) अथाभिनीय स्मृतिमन्तराले तबालपाण्डित्यमुपारुरुक्षुः । आराधनोक्तक्रमवर्तनेन यथायथं संपरिणम्य चाहे ॥ ४ 1522 ) लिङ्गे सशिक्षाविनय समाधौं कश्चिद्विहारे परिणामयुक्ते । संगोज्झिते चारुगुणश्रयण्यां संभावनायामशुभोज्झनेन ।। ५ 1523 ) सलोखनायोमपि च क्षमायां विमार्गणायामपि सुस्थिते च । निरूपणे चाप्युपसर्पणेन प्रश्ने स्वयोग्ये परिपृच्छनायाम् ॥ ६ गमनशील - नश्वर - शरीररूप लकडी को छोडना कठिन नहीं है; किन्तु इस महान् चारित्र का त्याग कठिन है । ( उसका छोडना अतिशय कष्टदायक है) । जिस प्रकार वह शरीर नश्वर है उस प्रकार चारित्र नश्वर नहीं है किन्तु वह स्थायी है, तथा जिस प्रकार शरीर भेदा जानेवाला है उस प्रकार चारित्र भेदा जानेवाला नहीं है, किन्तु वह भेदनस्वभाव से रहित है । अतएव शरीर से सर्वथा भिन्न स्वभाववाले चारित्र को उस शरीर के साथ कैसे ले जाया जा सकता है ? (अर्थात् नश्वर शरीर के साथ कल्याणकारक चारित्र को छोडना योग्य नहीं है) ॥ ३ ॥ ऐसा बीच के काल में (अर्थात् सल्लेखना धारण करने के पूर्व), स्मरण कर के बाल पण्डित मरण पर आरूढ होने की इच्छा करनेवाला आराधक श्रावक को आराधना ग्रन्थमें कहे हुए क्रम के अनुसार चलकर यथायोग्य अर्ह, लिंग शिक्षासहित विनय, समाधि (परिणाम), विहार, संगोज्ज्ञित, सुन्दर गुणश्रयणी, सम्भावना, अशुभोज्झन, सल्लेखना, क्षमा, विमार्गणा, सुस्थित, निरूपण, अपने योग्य प्रश्न परिपृच्छा, एक ग्रह, आलोचन, दोष – जात -गुणप्रदर्शन, आलय, संस्तर, निर्यापकादान, भुजिप्रकाश, हानि, निवृत्ति, क्षमण, अनुशिष्टि, श्रीसारणा, कवच, साम्य, ध्यान और लेश्याभिनय ; इनमें भली-भांति परिणत होकर परलोक गमन के लिये शरीर के परित्याग में उत्तम अर्थ को - अभीष्ट को सिद्ध करनेवाले अनुष्ठान को करना चाहिये । (प्रकृत में उपर्युक्त अर्ह व लिंग आदि का अभिप्राय इस प्रकार जानना चाहिये) ३) 1 गमनशीलाया. 2 स्थिरतरम्. 3 अङगयष्ट्या . 4 प्रापणीयं चरित्रं कथं स्यात् । ४) 1 Dसवि. चारभक्तप्रत्याख्यामस्य योग्ये । ५) ID चिहकरणे. 2 D शिक्षाशब्देन तस्याध्ययनम् उच्यते. 3D योगे समाधि. 4 D अनितक्षेत्रावासे. 5D गहतोपद्ये त्यागे. 6 Dसोपाने इति यावत्. 7 D भावनाभ्याससकृ-प्रवृत्तौ। ६) 1D कषायाणां सम्यक्तनुकरणे. 2 PD पृच्छयां ना।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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