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- धर्मरत्नाकरः -
[ १९.१२१
1543 ) तदुक्तम् -
अथाल्पमणुतो नास्ति नास्त्याकाशाद्यथा महत् । तथा मृत्युपकारेषु नानशनात्परं तपः ।। १२*१ 1544 ) सूरौ प्रवचनकुशले साधुजने कायकर्मणि प्रवणें । चित्ते च समाधिरते किमिहासाध्यं समस्तीति ।। १२*२ 1545 ) तदुक्तम् -
ज्ञानं यत्रे पुरस्सर सहचरी लज्जा तपः संबलं चारित्रं शिबिका निवेशनभुवः स्वर्गा गुणा रक्षकाः ।
॥१२*२॥
पन्थाश्च प्रगुणः शमाम्बुबद्दलच्छाया दयाभावना यानं तन्मुनिमापयेदभिमतं स्थानं विना विप्लवैः ।। १२*३
कहा भी है -
जिस प्रकार अणु से कोई अल्प और आकाश से कोई महान् वस्तु नहीं है, उसी प्रकार मृत्यु के उपकारों में अनशन से कोई बडा तप नहीं है ॥ १२१ ॥
आगम में निपुण आचार्य के समीप रहने पर शरीर की क्रियामें दक्ष साधु जन के सावधान होनेपर तथा मन के समाधि में लीन हो जानेपर, भला यहाँ असाध्य - जिस की सिद्धि न हो सकती हो - क्या है ? ( अर्थात् वैसी अवस्था में सभी प्रकार का अभीष्ट सिद्ध होता है )
कहा भी है
जिस समाधिमरण के मार्ग में ज्ञान आगे का मार्ग दिखानेवाला है, साथ में लज्जा आगमोक्त विधि से भ्रष्ट होने का खेद - मर्यादारूपी मेरी सहचरी - मित्र के समान सदा समीप में रहनेवाली है, तपरूपी पाथेय-नाश्ता - मेरे साथ है, चारित्ररूपी शिबिका - पालकी वाहन है, स्वर्ग पडाव-बीच में ठहरने के स्थान - है, सत्य, क्षमा आदिक गुण मेरा संरक्षण करनेवाले ( सिपाही ) है, मार्ग - समाधिमरण का मार्ग अथवा मोक्षमार्ग अतिशय सीधा और कषायोपशमरूप प्रचुर पानी से संयुक्त है तथा दया भावनारूपी छाया भी विपुल है, वह मार्ग मुनि को इच्छित स्थान में मुक्तिस्थान में - विना किसी प्रकार के उपद्रव के पहुँचा देता है ।। १२*३ ॥
१२*३) 1 याने. 2 गमनम् 3 कर्तृ. 4 प्रापयेत् 5 उपद्रवैः ।