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________________ -१८. ६९] - उद्दिष्टान्तप्रतिमाप्रपञ्चनम् - ३७५ 1509 ) कश्चिच्चेन्न हि शक्नुयादनुमति स्थातुं विनापि क्षणं दत्तामित्थमसौ तदा विरम रे पापाद्रमस्वागमे । तृष्णां छिन्द भज क्षमां कुरु दयां मोहं विभिन्दोद्धतं धर्म धन्य धृति बधान नितरां तुण्यात्मसौख्ये सदा ॥ ६६ 1510) एतां व्रतैरपमलैः परिपाति पूर्व वर्यः कथंचिदिमकां सततं व्रतानि । मध्यः सदा शबलितं युगलं दधानः सद्माश्रमीति कथितो मुनिभिः कनिष्ठः ॥ ६७ 1511) अचिन्तितं नाम परप्रक्लृप्त पात्राय दत्ते हि परमयुक्तः । स्वयं च गृह्णाति तथैव यो ऽसौ उद्दिष्टनिरिपरः प्रतीतः ॥ ६८ 1512) धृतिश्रीहदि विन्यस्ता धाटिताशापिशाचिका । उद्दिष्टत्यागिना पुंसा लौल्यव्याघ्रो ऽपि भीषितः ।। ६९ यदि कोई श्रावक अनुमति के विना क्षणभर भी नहीं रह सकता है तो वह अनुमति दे परन्तु उसे पाप से विरक्त होना चाहिये, आगम में रममाण होना चाहिये, तृष्णा को नष्ट करना चाहिये, क्षमा का आराधन करना चाहिये, प्राणियों पर दया करना चाहिये और उद्धत मोह को नष्ट करना चाहिये तथा धर्म में सन्तोष धारण करते हुए आत्मसुखमें सदा सन्तुष्ट रहना चाहिये ॥ ६६ ॥ जो पूर्वोक्त निर्दोष व्रतों के साथ इस प्रतिमा को धारण करता है वह उत्कृष्ट, जो व्रतों को सदा निर्मल पालता हुआ इस प्रतिमा का कभी निर्मलतया और कभी अनिर्मलतया पालन करता है वह मध्यम तथा जो पूर्ववत और इस प्रतिमा को शबलतया- सदोष रूप से - पालन करता है वह जघन्य श्रावक अनुमतिविरत मुनियों के द्वारा कहा गया है ॥ ६७ ॥ जो श्रावक पात्र विशेष के उद्देश से रहित दूसरे के लिये बनाये गये आहार को उनकी प्रेरणा पाकर पात्र के लिये देता है और स्वयं भी उसी प्रकार से ग्रहण करता है वहउद्दिष्ट आहार का त्यागी प्रसिद्ध है ॥ ६८॥ उद्दिष्टत्यागी श्रावक सन्तोषरूप लक्ष्मी को अपने हृदय में स्थापित करता है, आशारूप पिशाची को दूर भगाता है और लोलुपतारूप व्याघ्रको भयभीत भी कर देता है-उसे नष्ट कर देता है ।। ६९॥ ६६) 1 P°विभिन्द्युद्धतम् । ६७) 1 प्रतिमाम्. 2 उत्तम: श्रावकः. 3Dप्रतिमां समां कपंक्ति साथि निर्मलानि 4 दर्शनं व्रतानि च.5 गृही। ६८) 10 परकृतम्, P प्रक्लप्तं कृतम्. 2D एकादशातिमाधारी श्रावक: श्रावकगृहात् आनीतं महात्मानं ददाति. P परेषां प्रयुक्तः. 3 अभाव । ६९) 1D भयभीतः कृतः।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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