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________________ -धर्मरत्नाकरः [१८. ७० 1513) प्रायो निमज्जतिजनो गुरुगृद्धिसिद्धउद्दिष्ट भोजनमभीप्सुरपीन्द्रियाणाम् चेतोयुजां प्रसरतां तनुते ऽनिवार्यमारम्भमुख्य कलिलानि पुनश्चिनोति ।। 1514) अप्राप्तितोऽपि ननु बन्धमुपैति जीव उद्दिष्ट भोजनपरः प्रसृताभिलाषः। वारिप्रवेशमिव वन्यगजो दुरन्तं रत्युत्स तु सहवासिकाश्नुते न ।। ७१ 1515) परमसमतामातन्वानो मतामतवस्तुषु प्रहतकरणग्रामोद्दामप्रवृत्तिरनाकुलः । विदघदशनं त्यक्तोदेशं वपुःस्थितिमात्र व्रजति समयाभ्यासासक्तो गृही यतिदेश्यताम् ॥ ७२ 1516) अवति यो व्रतसंकलितामिमां भवति स प्रवरों विशदव्रतः। पुनरिमी च कदाचन मध्यमः शबलधीरुभयत्र कनिष्ठकः ॥ ७३ इति धर्मरत्नाकरे उद्दिष्टान्तप्रतिमाप्रपञ्चनो ऽष्टादशो ऽवसरः ॥ १८ ॥ जो मनुष्य भारी लोलुपता के वश तैयार किये गये उद्दिष्ट आहार की अभिलाषा करता है वह प्रायः डूबता है-पतित होता है या संसार समुद्र में गोता खाता है। मन से सम्बंध रखनेवाली इन्द्रियों के संचार को - उनकी विषयोन्मुखता को विस्तृत करता है, तथा अनिवार्य आरम्भ आदि पापों को संचित करता है ॥७॥ जिस प्रकार वन का हाथी कामवासना को पूर्ण करने की इच्छा के वश होकर गड्ढे में प्रविष्ट होता हुवा वहां दुःसह दुख को सहता है, पर हथिनी के साथ संभोग के आनन्द को नहीं प्राप्त कर पाता है। उसी प्रकार उद्दिष्ट भोजन में आसक्त हुआ श्रावक अपनी अभिलाषा को विस्तृत करता हुआ इच्छानुसार उद्दिष्ट भोजन को न पाकर भी कर्मबन्धन को प्राप्त होता है । (तज्जन्य दुःख को सहता ही है ) ॥१॥ जो अपने उद्देश से निर्मित भोजन को छोडकर शरीर को स्थिर रखने के लिये अनुद्दिष्ट आहार को ग्रहण करता है वह उत्कृष्ट समता भाव को विस्तृत करता हआ इष्ट-अनिष्ट वस्तुओं में चूँकि इन्द्रिय-समूह की उच्छृखल प्रवृत्ति को रोक देता है, इसलिये निराकुल भाव को प्राप्त होता है। तथा इसी कारण से वह गहस्थ आगम के अभ्यास में आसक्त हो कर मुनि जैसी अवस्था को प्राप्त कर लेता है ॥७२॥ जो पूर्व सर्व व्रतों के साथ इस प्रतिमा का निर्मलतापूर्वक पालन करता है वह निर्मल व्रतका धारक उत्कृष्ट श्रावक होता है। जिसके पूर्ववत निर्मल हैं तथा इस प्रतिमा को भो कदाचन धारण करता है वह मध्यम उद्दिष्टत्यागी श्रावक कहा जाता है । तथा जो पूर्वव्रत और इस प्रतिमा को सदोष रूप में धारण करता है वह इस प्रतिमा का धारक जघन्य श्रावक होता है ॥७३॥ इस प्रकार धर्मरत्नाकरमें उद्दिष्टान्त प्रतिमाओं का विस्तार कहनेवाला अठारहवां अवसर समाप्त हुवा ॥१८॥ Mixixing:७०) 1-चित्तयुक्तानाम्. 2 D निरन्तरम् । ७१)1 गा. 2 कामक्रीडाम्. 3 हस्तिन्या. 4 न लभते। ७२) 1 PD इष्टानिष्ट। ७३) 1 रक्षति. 2 प्रतिमाम्. 3 धुर्यः. 4 प्रतिमाम्. 5 समल मिश्रित वा। ७४) 1 विस्तारकंः।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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