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________________ [१८. ६३ - -धर्मरत्नाकरः - 1506) निन्दन्ति के ऽपि च हसन्ति परे' द्विषन्ति विज्ञापयन्त्युपदिशन्ति च नर्मणान्ये । षट्कर्मणामनुमतिं प्रददाति पृष्टे पृष्टः फलं हि लभते ऽत्र परत्र चान्यत् ॥६३ 1507) नारिप्सतै परिजिघृक्षति नैव किंचित् कायस्थितेरपि कृते नितरामुदास्ते । उत्तुङ्गसंयमधराधरसंरुरुक्षु यो ऽसौ त्यजत्वनुमतिप्रसरं परत्र ॥ ६४ . 1508 ) आरम्भं पापतो ऽमुञ्चत् तत्रैवानुमति ददत् । लक्ष्यते सर्पभीत्येव नश्यन् शयुमुखे पतन् ॥ ६५ वश में नहीं है और आरम्भकार्य में उत्साही भी नहीं है ऐसे मनुष्यों को अनुमति देकर आरम्भादिक में निश्चय से प्रवृत्त करता है वह नंदक महामत्स्य के कान में स्थित क्षुद्र मत्स्य के समान पापार्जन करता है ॥ ६२ ।। __कोई निंदा करते हैं, दूसरे कितने ही हसते हैं, कितने ही द्वेष करते हैं, कितने ही प्रार्थना करते हैं, कितने ही हँसी से उपदेश देते हैं तथा पूछे जाने पर कोई हँसी में असिमषि आदि छह कर्मों को अनुमति देता है । इस प्रकारसे पूछा गया वह इस लोक में फल को ' प्राप्त करता है और परलोक में अन्य फल को प्राप्त करता है ॥ ६३ ॥ जो संयमरूप पर्वत पर चढने का इच्छुक हो कर न इच्छा करता है और न कुछ ग्रहण भो करता है यहाँ तक कि, अपने शरीर को स्थित रखने के लिये जो आहार के ग्रहण में भी अतिशय उदासीन रहता है, उसे अन्य जन के लिये अनुमति देने का त्याग करना चाहिये ॥६४ जो पाप की भीति से स्वयं आरम्भ का त्याग करता है पर उसी के विषय में किसी अन्य के लिये अनुमति देता है वह सर्प के डर से भागकर अजगर के मुंह में पडते हुए मनुष्य के समान दिखता है ॥६५॥ ६३) 1 PD°हसन्त्यपरे. 2 PD°प्रददत्त । ६४) 1 न वाञ्छते. 2 गृहीतुमिच्छति. 3 उदासान्त) सीनो भवति । 4 D°संयमधराधर'. 5 आरोढुमिच्छुः. 6 उत्तमः श्रावकः । ६५) 1 अ [ज ] गरमुखे ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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