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________________ - - उद्दिष्टान्तप्रतिमाप्रपञ्चनम् - ..१८. ६२] 1503 ) वैराग्यसंयम रुरुक्षुधिया' हि येन संगो निरासि दुरितव्यसनैकमित्रम् | कृष्यादिकं वितनु कर्मसुतोत्थमित्थमित्यादिकामनुमत कथं ददाति ॥ ६० 1504 ) ततः कर्तुं कर्म प्रभवतु हतं मा प्रभवतात् समुद्दिष्टा हन्तानुमतिजनितैः पापनिवहैः । प्रवृद्धो ऽसौ सत्यं परिकलितदूरेण विचरन् मृगो धावन् यद्वन्मृगयुभयतो ऽशवयकरणे ।। ६१ 1505) लोभावशगताननुत्साहिनः प्रवर्तयति मानवाननुमतिप्रदानाद् ध्रुवम् विलोचनविव जितानिव हि यष्टिरेनोभरं समर्जयति नन्दकश्रवणवासिमत्स्यो यथा ।। ६२ ३:५७ अंधार उत्पन्न होनेपर मुनि उन्हें ग्रहण न करेंगे । अतः वे पदार्थ अपने उपयोग में आ जावेंगे, ऐसी तुच्छ बुद्धि दाता के मन में उत्पन्न होती है। इससे यह परदातृव्यपदेश अतिचार होता है । ( २ ) सचित्त निक्षेप - सचित्त पद्मपत्रादिके ऊपर आहार को रखकर देना। (३) सचित्तविधान - भाज्यपदार्थों को कलत्रादि कों से ढँकना । ( ४ ) कालातिक्रम - अकाल में भोजन कराना । (५) मात्सर्य - आहार देते समय आदर नहीं रहना, अथवा अन्य दाताओं के गुणों को सहन न करना ॥ ५९*१ F जिसने वैराग्य और संयनरूप वृक्षपर आरूढ होने की इच्छा से पाप और विपत्ति के अद्वितीय मित्रस्वरूप परिग्रह को दूर कर दिया है वह श्रावक हिसादिजनक खेती आदि आरम्भकार्य के विषय में कैसे अनुमति देगा ? ॥६०॥ (?) इसलिये (श्रावक) पापकर्म के लिये स्वयं प्रवृत्त हो या न हो हिसंक की उद्दिष्ट हिंसा को अनुमति देने से उत्पन्न हुए पापभार से संपन्न होकर पापकर्म से दूर रहकर भी, व्याध के भय से रक्षणरूप अशक्य कार्य करनेवाले भागते हुए मृग के समान, पापी बन जाता है । ( तात्पर्य, मृग जैसे भागो या न भागो वह व्याध की शिकार बन जाता है उसी तरह अनुमतिदाता स्वयं पापविरत होकर भी पापी बन जाता है ) ॥ ६१ ॥ जैसे लाठी नेत्ररहित अन्धे मनुष्यों को चलाती है वैसे ही अनुमतिदाता जो लोभ के ६०) 1 आरोहणबुद्ध्या. 2 त्यक्त: 3 हिसाकर्म 4 वैराग्यसंयमयुक्तः । ६१) 1 ततः निन्द्यकर्म कर्तुं प्रभवतु मा प्रभवतु. 2 उपदेशको ऽपि हन्ता भवति. 3 भिल्लभयत आखेटकभयतः, D भिल्ल 17 ४८
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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