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________________ ३७६ - धर्मरत्नाकरः - [१८. ५९तत्र स्वरूपं द्विविधम् । अक्षरमनक्षरं च । रचना द्विविधा । गद्यं पद्यं च । शुद्धिद्विविधा । प्रमादप्रयोगविरहो ऽर्थव्यञ्जनादिविकलता परिहारश्च । भूषा द्विविधा । वागलंकारो ऽर्थालंकारश्च । ओजःप्रसादमाधुर्यमसृणत्वसमाधिसमतादिगुणानुरूपशब्दरचना वागलंकारः । सभेदवास्तवौपम्या तिशयश्लेषप्रायो ऽर्थालङ्कारः । अर्थो द्विविधश्चेतनो ऽचेतनश्च । 1501) उच्चैर्गोत्रं भुवनमहितं प्राश्नुते सुप्रणामात् भक्तेः कीति मुदितजगतीं संस्तवं संस्तवाच्च । दानात्पद्मास्त्रिभुवनमहोपासनां पर्युपास्ते रित्थं रत्नत्रितयकमलाप्राणनाथान् भजन सन् ॥ ५९ 1502 ) परदातृ व्यपदेशः सचित्तनिक्षेपतत्पिधाने च । कालस्यातिक्रमणं मात्सयं चेत्यतिथिदाने ॥ ५९*१ गद्य- उन में स्वरूप के दो भेद हैं - अक्षर और अनक्षर । रचना के दो भेद हैं - गद्य और पद्य । शुद्धि के दो भेद हैं-प्रमादप्रयोगविरह और अर्थ-व्यंजनादिविकलता-परिहार । भूषा दो प्रकार की है-शब्दालंकार और अर्थालंकार । ओज, प्रसाद माधुर्य,स्निग्धता, समाधि, - और समता आदिक गुणों के अनुसरण करनेवाली शब्दरचना को शब्दालंकार और भेदसहित वास्तविकता, उपमा, अतिशय और श्लेष आदिरूप रचना को अर्थालंकार कहते हैं । अर्थ दो प्रकार का है - चेतन और अचेतन। इस प्रकार से जो मुनीश्वर रत्नत्रयरूपी कमला-लक्ष्मी – के प्राणनाथ है उनकी भक्ति करनेवाला श्रावक उन्हें प्रणाम करने से लोकपूजित उच्च गोत्र को, उनकी भक्ति से जगत को आनंदित करनेवाली कोति को उन के गुणों का वर्णन करने से स्वयं स्तुति को,आहारादिका दान देने से लक्ष्मी को और उन की उपासना करने से त्रैलोक्य में स्वयं बडी उपासना को प्राप्त करता है ।। ५९॥ अतिथि दान में परदातव्यपदेश, सचित्तनिक्षेप, सचित्तपिधान, कालातिक्रम और मात्सर्य ये पांच अतिथिदान के अतिचार हैं। १) परदातृव्यपदेश- अन्य दाता ने ये पदार्थ दिये हैं, ऐसा कह कर पात्र को अन्नादिक देना। दूसरे के ये पदार्थ हैं ऐसा कहने से ये शुद्ध है वा अशुद्ध हैं; ऐसा संशय गद्यम् ) 1D कोमलत्वम् । ५९) 1 प्राप्नोति. 2 प्राप्नोति . 3 जिनान्. 4 सेवन् [ सेवमानः ] सन् ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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