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१८. ५८* १]
- उद्दिष्टान्तप्रतिमाप्रपञ्च नम् -
प्रसिद्धं च -
1497 ) यदज्ञानीक्षपेत् बह्वीभिर्भवकोटिभिः । तेज्ज्ञानवांस्त्रिभिर्गुप्तः क्षपेदन्तर्मुहूर्ततः ॥ ५७
1498 ) ज्ञानी पेटुस्तदैव स्याद्बहिः क्ष्टु सदा | ज्ञातुनलवे प्यस्य न पटुत्वं युगैरपि ।। ५७% १ 1499 ) शब्दानुशासनसमभ्यसनान्न यस्य aat's aण न तथा नयेभ्यः । संप्राप्य शुद्धिमसमास परप्रतीतेः क्लिश्यन् पुमान् भवति नेत्रविहीनतुल्यः ॥ ५८
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1500 ) स्वरूपं रचना शुद्धिर्भूपाश्च (स्व) समासतः । प्रत्येकमागतस्यैतद्दैविध्वं प्रतिपद्यते ।। ५८* १
बिना आता है । ठीक है - ज्ञान भावना में रत रहनेवाला पुरुष जब आत्मारूपी समुद्र में डूबता है तब समस्त बाह्य क्रियायें अलग कहाँ से रह सकती हैं ॥ ५६ ॥
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यह प्रसिद्ध भी है -
अज्ञानी जीव जिस कर्म को अनेक कोटि परिमित भवों में क्षीण करता है उसे ज्ञानी मनोगुप्ति आदि तीन गुप्तियों से रक्षित होकर अन्तर्मुहूर्त में ही क्षीण कर देता है ॥५७॥
. सम्यग्ज्ञान के विना बाहय में क्लेश को सहनेवाले मनुष्य के व्रत में सम्यग्ज्ञानी तत्काल चतुर हो जाता है । परन्तु वह अज्ञानी मनुष्य सम्यग्ज्ञानी के ज्ञान के लेश में भी अनेक युगों के बीतने पर भी चतुरता नहीं प्राप्त कर सकता है ॥ ५७१ ॥
जिसकी बुद्धि न शब्दशास्त्र के अभ्यास से असाधारण शुद्धि को प्राप्त हुई है, न इतिहास के द्वारा - कथाग्रन्थों के आश्रय से शुद्धि को प्राप्त हुई है; और न नयों से भी उस शुद्धि को प्राप्त हुई है, वह मनुष्य चूंकि केवल दूसरों के ज्ञान के आश्रय से ही बाघ क्लेश को सहता है, अतएव उसे नेत्रों से रहित - अन्धे - मनुष्य के समान समझना चाहिये ॥ ५८ ॥ स्वरूप, रचना, शुद्धि, भूषा और अर्थ ये आगम के प्रत्येक संक्षेप से दो प्रकार के कहे गये हैं ॥५८*१॥
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५७) 1 कर्म । ५७* १) 1D तदा प्रकटत्वं ज्ञानस्य यदा व्रतमाचरति. 2 क्लेशयुक्त. 3D बहि:क्लेष्टुः । ५८ ) 1 वृत्तैति पुरातनी. 2 बुद्धिः । ५८* १) 1 PD° भूषार्थ स्व° ।