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विषय
पाप की प्रीति छोडना योग्य
२. अभयदानाविफल
दानशीलाचना की वृद्धि के लिये तपोधर्म की भावना १
धर्म की व्याख्या
१०१
धर्मरत्नाकरः -
दान के चार प्रकार
दाता का सर्वत्र सन्मान
अभयदान की महती
नास्तिक की दृष्टि से भी दया की श्रेष्ठता
लोकव्यवहार सब लोगों को समान जीवसमूह को अपने समान समझना प्राणिरक्षण ही धर्म प्राणिरक्षण के बिना धर्म असंभव
दवा से धर्मकर्मों की सफलता
अभयदान से सब तरह का सुख धर्म का सर्वस्व अभयदान दया के बिना धर्म अशोभन
दयारहित धर्म अधर्म
जीवित के लिये बारह व्रत जीवित सब से प्रिय
जीव के बिना सब निरर्थक जीवपालन हो श्रेष्ठ धर्म सर्व जीवलोक अभयदान के पात्र जीवों के प्रकार और उनका संरक्षण हिंसा के परिणाम
दया से कल्याण, हिंसा से अकल्याण
हिंसा से नरकप्राप्ति
हिंसा से हीन देवगति
दया की आवश्यकता
जीवों की भिन्न रुचि
प्राणिपीठा का परिहार करना
अभयदान का फल
हिंसा और अहिंसा के लिये दृष्टान्त
दया से प्रत्यक्ष सुख
श्लोकाङक
५७
२
३
५
५०१
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७-८
९-११
१२
१४-१५ १६-१८
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२०
२१-२१*१
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२४-२५
२६-२९
३०-३३, ३५-३६
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४२-४५
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४७-५२, ५४
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