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३७२ - धर्मरत्नाकरः -
[१८. ४७ . ___1481) उत्तमं सात्त्विकं दानं राजसं मध्यमं मतम् ।
सर्वेषामेव दानानां होनं तामसमुच्यते ॥ ४७ 1482 ) दत्तं परत्रैव फलत्यवश्यं नैकान्तिकं हन्त वचो यतो ऽमृः।
गावः प्रयच्छन्ति न कि पयांसि तृणानि तोयान्यपि संप्रभुज्यं ॥ ४८ 1483) ये भक्तिभारविनताः किल शाकपिण्डं
संकल्पयन्ति समयानुगुणं मुनिभ्यः। ते ऽगण्यपुण्यगुणसंततिसंनिवासा
श्चिन्तामणिनिगदिताविचला हि भक्तिः ॥ ४९ 1484) अभिमानस्य रक्षार्थ विनयायागमस्य च ।
भोजनादिविधानेषु मौनमूचुर्मुनीश्वराः ॥४९*१ 1485) लौल्यत्यागस्तपोवृद्धिः समभावनिदर्शनम्।
ततश्च समवाप्नोति मनःसिद्धिं जगत्त्रये।। ४९*२ व पुत्र आदि के द्वारा पूजा के विना योग्य पात्र के लिये भी दिलाया जाता है उसे मुनिजन तामस दान मानते हैं ॥ ४६ ॥
इन सभी दानों में सात्त्विक दान उत्तम और राजस दान मध्यम माना गया है। तामस दान को सर्वत्र हीन ही कहा जाता है ॥ ४७ ॥
दिये हुए दान का फल परलोक में ही प्राप्त होता है, ऐसा जो मानते हैं; खेद है कि उनका वैसा कहना एकान्तरूप से योग्य नहीं है क्योंकि, गायें प्रत्यक्ष में घास और पानीका उपभोग कर के क्या दूध नहीं देतो हैं ? अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार गायें इसी भव में दूध रूप फल को देती हैं, उसी प्रकार दान का फल इहलोक में भी मिलता है ॥ ४८ ॥
जो भक्ति के बोझ से अतिशय झुककर- विनम्र हो कर-मुनियों के लिये आगमोक्त विधि के अनुसार शाक के भी आहार को देते हैं वे अपरिमित पवित्र गुणसमूह के निवासस्थान-उससे संपन्न- होते हैं । सो ठोक भी है, क्यों कि, स्थिर भक्ति चिन्तामणि के समान अभीष्ट की देनेवाली होती है ।। ४९ ॥
अभिमान को रक्षा व आगम की विनय के लिये भोजनादि कार्यों में मुनियोंने मौन को कहा है- उसका विधान किया है ॥ ४९* १ ॥
मौन से भोजनविषयक लोलुपता के हट जाने से तप की वृद्धि व समता भाव-राग द्वेष के अभाव -का दर्शन होता है । तथा इस समता भाव से प्राणी तीनों लोकों में मन को सिद्धि को प्राप्त होता है - (उस के ऊपर उसका पूर्णरूपसे नियंत्रण हो जाता है) ॥४९*२॥
४८) 1 दुग्धानि. 2 भक्षयित्वा । ४९) 1 यथा भवति, D आगमानुसारेण ।
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