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-१८. ५२]
- उद्दिष्टान्तप्रतिमाप्रपञ्चनम् -
1486) प्रश्रय धिकतया श्रुतस्य वै श्रेयसां च विभवस्थ भाजनम् । संभवन्ति मनुजाः प्रसन्नतामेत्यतो भवभवे' सरस्वती ॥ ५० 1487 ) शारीरमानसानां तु सहजव्याधिबाधने ।
साधुः संयमिनां कार्यः प्रतीकारो गृहाश्रितः ।। ५०*१ 1488 ) शारीरा ज्वरकुष्ठाद्याः क्रोधाद्या मानसाः स्मृताः । आगन्तवो ऽभिघातोत्थाः सहजाः क्षुत्तृषादयः ॥ ५१ 1489 ) मुनीनां व्याधियुक्तानामुपेक्षायामुपासकैः ।
समाधिर्भवेत्तेषां स्वस्य वा धर्मकर्मता ।। ५१*१ 1490 ) सौमनस्यं सदा कार्य व्याख्यात्सु च पठत्सु च ।
आवासपुस्तकादीनां सौकर्यादिविधानतः ॥ ५१*२ 1491 ) अङग पूर्वरचितप्रकीर्णकं वीतरागमुखपद्मनिर्गतम् ।
नश्यतीह सकलं सुदुर्लभं सन्ति न श्रुतधरा यदर्षयः ॥ ५२
विनय की अधिकतासे निश्चयतः आगमज्ञान, अनेक प्रकार के कल्याण और संपत्ति का भाजन होता है । तथा इस से जन्म जन्मान्तर में उन के ऊपर सरस्वती प्रसन्न होती है ॥५०॥
हुआ
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मुनियों के देह में शारीरिक, मानसिक आगन्तुक और स्वाभाविक रोग की बाधा के उपस्थित होने पर गृहस्थों को उन के रोगों का भली भाँति प्रतिकार करना चाहिये ॥ ५०* १ ॥ उन में 'ज्वर व कुष्ठ आदिक शारीरिक, क्रोधादिक, मानसिक, शीत व उष्ण वायु के अभिघात से उत्पन्न आगन्तुक तथा भूख व तृषा आदि को साहजिक रोग कहा जाता है ॥ ५१ ॥ श्रावकों के द्वारा रोगी मुनियों की उपेक्षा की जाने पर उन के समाधि - ध्यान या तपश्चरण - से च्युत हो जाने की सम्भावना है तथा श्रावक को उन की उपेक्षा करने पर अधर्म कर्मता धर्म-कर्म से भ्रष्ट होने का प्रसंग आता है ॥ ५१*१ ॥
जो महात्मा श्रुत का व्याख्यान करते हैं अथवा उसे पढते हैं उन के लिये निवासस्थान ओर पुस्तकादि उपकरणों की सुलभता को निर्मित कर निरन्तर सौमनस्य सुन्दर मन ( सद्विचार) को प्रगट करना चाहिये ॥ ५१*२ ॥
यदि श्रुत के ज्ञाता महर्षि न होंगे तो वीतराग जिन के मुखरूप कमल से निकला उनके द्वारा उपदिष्ट - आचारांगादि द्वादशांगस्वरूप अंगश्रुत, उत्पादपूर्वादि
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५०) 1 विनय 2 जन्मनि जन्मनि । ५१* १ ) 1 मुनीनाम् 2 उपासकस्य । ५१*२) 1 सुन्दरमानसत्वम्. 2 सुलभत्वादि ।