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________________ ३७० -धर्मरत्नाकरः - [१८. ४३ 1472 ) उच्चावचःप्राणिविगुम्फितो' ऽयं जिनेश्वराणां समयः सदेति । स्तम्भे यथैकत्र निशान्तमेवं नैकत्र तिष्ठेत्पुरुषो ऽभ्युपार्चन् ॥ ४३ 1473) नामतः स्थापनाद्रव्यभावन्यासश्चतुर्विधाः । भवन्ति मुनयः सर्वे दानपूजादिकर्मसु ।। ४३*१ 1474) उत्तरोत्तरभावेन विधिस्तेषु विशिष्यते । पुण्यार्जने गृहस्थानां जिनप्रतिकृतिष्विव ।। ४३*२ 1475) अतद्गुणेषु भावेषु व्यवहारप्रसिद्धये । यत्संज्ञाकरणं नाम नरेच्छावशवर्तनात् ॥ ४३*३ उसे जिनेन्द्र मत के आश्रित हुए प्राणिरूप भूमि में बोना चाहिये (उन्हें यथायोग्य आहारादि देकर उसका सदुपयोग करना चाहिये) । कारण यह कि पवित्र व्रत व गुणसमूह से विभूषित हो कर आगनोक्त मार्ग का अनुसरण करने वाला सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान ओर सम्यक् चारित्र. स्वरूप मोक्ष मार्ग में निरत-साधु लाखों में एक आध हो कोई प्राप्त होता है । तथा पाप-मल को नष्ट करनेवाला साधु तो कदाचित् हो प्राप्त होता है अथवा नहीं भी प्राप्त हो सके ॥ ४२ ॥ यह जिनेश्वरों का धर्म ऊँच ओर नोच दोनों हो प्रकार के प्राणियों से सदा ग्रथित है। कारण यह कि जिस प्रकार गृह कभी एक खम्भे के ऊपर नहीं रह सकता उसी प्रकार जिनमत भी कभी एक पुरुष के ऊपर ऊँचमात्र के आश्रित नहीं रह सकता है, (ऐसा समझ कर श्रावक . को एक ही उत्तम साधु का आदर न कर के सब ही तपस्वियों का आदर करना चाहिये) ॥४३ नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव निक्षेपों से सब मुनि चार प्रकार के हैं,जो दान-पूजा आदि कार्यों में तत्पर होते हैं ।। ४३*१ ॥ जिनप्रतिमाओं के समान उपयुक्त चार प्रकार के मुनियों के विषयमें की गई विधि गृहस्थों के पुण्यापार्जन में उतरोतर विशेषता को प्राप्त होती है। (अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार नाम, स्थापना, द्रव्य ओर भाव के भेद से चार प्रकार के जिनों के विषय में की गई भक्ति उत्तरोत्तर-नामको अपेक्षा स्थापना और स्थापना को अपेक्षा द्रव्य आदि के क्रम सेअधिकाधिक पुण्यसंचय का कारण होता है उस प्रकार उपयुमा चार प्रकार के मुनियों के लिये यथायोग्य विधिपूर्वक दिया गया आहारादि भो उतरोतर गहस्थों के अधिकाधिक पुण्यसंचय का कारण होता है) ॥ ४३*२ ॥ व्यवहारकार्य को सिद्ध करने के लिये मनुष्य को इच्छा के अनुसार जिन पदार्थों में जो गुण विद्यमान नहीं हैं तदनुरूप भी जो उन का नाम रखा जाता है, उसे नामनिक्षेप जानना चाहिये ॥ ४३*३ ॥ ____४३) 1 उत्तममध्यमजघन्यपात्रविशेषः, 2 एक स्मन्. 3 गृहम्, D गृहम् प्रतद्गुणेषु भावेषु. 4 ददत् । ४३*२) 1 पृथक क्रियते।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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