________________
३६९
-१८. ४२]
- उद्दिष्टान्तप्रतिमाप्रपञ्चनम् - 1467) कारुण्यादथवौचित्यात्तेषां किंचिदिशन्नपि ।
दिशेदुङ्क्तमेवान्नं गृहे मुक्ति न कारयेत् ॥ ३९*१ 1468 ) ज्ञानं तपोहीनमपि प्रपूज्यं ज्ञानमहीनं सुतपो ऽपि पूज्यम् ।
यत्र दयं देववदेष पूज्यो दयेन हीनो गणपूरणः स्यात् ।। ४० 1469 ) अहंद्रपे नमो ऽस्तु स्याद्विरत्या विनयक्रिया।
___ अन्योन्य क्षुल्लके चाईमिच्छाकारवचः सदा ।। ४०*१ 1470 ) अनेकधारम्भविजृम्भितानां वित्तव्ययो हर्म्यवतामगण्यः ।
तद्भुक्तिमात्रांहतये' न योग्या विचारणा लिगिषु तीर्थहन्त्री ॥ ४१ 1471) दैवायत्तां धनलवभवां प्राप्य भूति गृहस्था।
वप्तव्यो ऽसौ जिनपसमयाध्यासितप्राणिभूमौ । साधुः शुद्धव्रतगुणगणः सूत्रमार्गानुसारी
चैको लक्षे क्षपितकलिलो लभ्यते वा न वेति ॥ ४२ मिथ्याचारित्र-के प्रचारक हैं, ऐसे मिथ्यादृष्टि जनों के लिये दिया गया आहारादि अनर्थ का कारण होता है ऐसा समझना चाहिये ॥ ३९ ॥
___ दयाभाव से अथवा उचित समझकर यदि उन को कुछ (आहारादिक) देता भी है तो शेष रहे आहार को हो देवे । परन्तु अपने घर पर उन्हे भोजन नहीं कराना चाहिये ॥३९*१
तप से रहित भी ज्ञान पूज्य है और ज्ञान से रहित उत्तम तप भी पूज्य है। जिसमें उत्तम ज्ञान और तप दोनों हैं वह तो देव के समान पूज्य है । तथा जो ज्ञान और तप दोनों से होन है वह गणपूरक है (अर्थात् केवल वह संख्या को पूर्ण करनेवाला है) ॥ ४० ॥
जिनलिंग का रूप धारण करनेवाले मुनि के लिये 'नमो ऽस्तु' कहना चाहिये । आर्यिका को विनयक्रिया करनी चाहिये अर्थात 'वन्दे ' ऐसा कहना चाहिये। क्षुल्लक को परस्पर योग्य इच्छा का वचन कहना चाहिये, अर्थात् ' इच्छामि' ऐसा कहकर आदर करना चाहिये ॥ ४०*१॥
जिन गृहस्थों के लिये अनेकों आरंभ करने पड़ते हैं उन के धन का अगण्य -मणनासे रहित-व्यय होता है । इसलिये जिनलिंगधारियों के लिये आहार देने में उस का विचार करना योग्य नहीं है, प्रत्युत वह धर्म का विघातक होता है ॥ ४१ ।।
हे गृहस्थों! तुम्हें सौभाग्यवश लेशमात्र धन से प्रादुर्भूत हुई जो संपत्ति प्राप्त हुई है
४०*१) 1 आर्यायाः । ४१ ) 1 दानाय. 2 विचारणा त्रिलिजिगषु तीर्थहन्त्री भवति । ४२) 1 वपनीया. 2 असो विभूतिः. 3 पात्रभूमौ. 4 लक्षमध्ये ।