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[१८. ३३*४
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- धर्मरत्नाकरः - 1 452 ) मूलोत्तरगुणैः इलाध्यैस्तपोभिनिष्ठितस्थितिः ।
साधुः साधु भवेत्पूज्यः पुण्योपार्जनपण्डितैः ।।३३*४ 1453 ) ज्ञानकाण्डे क्रियाकाण्डे चातुर्वर्ण्यपुरस्सरः ।
सूरिदेव इवाराध्यः संसाराब्धितरण्डकः ॥ ३३*५ 1454 ) लोकवित्त्वकवित्वाद्यैर्वादिवाग्मित्वकौशलैः।
मार्गप्रमावनोद्युक्ताः सन्तः पूज्या विशेषतः ॥ ३३*६ 1455) उक्तं च
भोज्यं भोजनशक्तिश्च रतिशक्तिवरस्त्रियः।
विभवो दानशक्तिश्च नाल्पस्य तपसः फलम् ॥३३*७ 1456) शिल्पिकारुकवाकपण्यसंफलीपतितादिषु ।
देहथिति न कुर्वीत लिङिगलिङगोपजीविषु ॥ ३३*८
जो गृहस्थ पुण्य के उपार्जन में दक्ष हैं - उसका संचय करना चाहते हैं - उन्हें प्रशंसनीय मूलगुणों और उत्तर गुणों से संपन्न तथा अनशनादि तपों के द्वारा अपनी स्थिति को स्थिर करनेवाले साधु की भलीभाँति पूजा करनी चाहिये ॥ ३३*४ ॥
जो आचार्य ज्ञानकाण्ड और क्रियाकाण्ड में दक्ष हो कर चातुवर्ण्य संघका - मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविका समूह का- अग्रणी होता हुआ संसार समुद्र से पार उतारने के लिये दृढ नौका के समान हैं उसकी देव के समान आराधना करनी चाहिये ॥ ३३२५ ॥
जो सत्पुरुष लोकव्यवहार में निपुण होकर प्रतिभापूर्ण कविता आदि के द्वारा तथा वाद - शास्त्रार्थ – एवं प्रशस्त वक्तृत्व में प्राप्त कुशलता के द्वारा मोक्षमार्ग की प्रभावना में प्रयत्नशील रहते हैं, उनको विशेष रूप से पूजा करनी चाहिये ॥ ३३*६ ॥
__ कहा भी है -
भोज्य वस्तु और भोजन की शक्ति, विषयोपभोग की शक्ति और उत्तम स्त्रियाँ तथा ऐश्वर्य व दान देने को शक्ति, यह सब अल्प पुण्यका फल नहीं है । (अर्थात् उपर्युक्त सामर्थ्य और भोज्य आदि की प्राप्ति महातप से ही होती है ) ॥३३*७ ।।
__ चित्रकारादि कारुकवाक् – सुनार व बढई आदिक, पण्यसंफली - वेश्या और पतित - जातिभ्रष्ट - आदिकों के यहाँ तथा अन्य लिंगियों व लिंग को - साधु के वेष को
३३*६) 1 पाण्डित्यविशेष. 2 D चतुरता। ३३*८1 1 D लुहारचर्मकारादयो ये तेषां गृहे माहार न योग्य. 2 संफली दुश्चारिणी।