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- १८. ३३३] - उद्दिष्टान्तप्रतिमाप्रपञ्चनम् - 1447) बुद्धिपौरुषयुक्तेषु देवायत्तविभूतिषु ।
___ नृषु कुत्सितसेवायां दैन्यमेवातिरिच्यते ॥ ३२*३ 1448 ) तपो ऽनुष्ठानसच्छास्त्रविशेषाध्ययनक्रमात् ।
___ मानवः संमतं पात्रं समयस्थो ऽप्यनेकधा । ३३ 1449 ) गृहस्थो वा यतिर्वापि जैनं समयमास्थितः ।
यथाकालमनुप्राप्तः पूजनीयः सुदृष्टिभिः ॥३३*१ 1450 ) ज्योतिर्मन्त्रनिमित्तज्ञः सुप्राज्ञः कार्यकर्मसु ।
मान्यः समयिभिः सम्यक् परोक्षार्थसमर्थकः ॥ ३३*२ 1451 ) दीक्षायात्राप्रतिष्ठाद्याः क्रियास्तद्विरहै कुतः ।
तदर्थं परपृच्छायां कथं च समयोन्नतिः ॥ ३३*३
जो बुद्धि और पुरुषार्थ से संयुक्त है तथा जिन के दैवाधीन वैभव है ऐसे मनुष्यों के विषय में घृणित सेवा करने पर दीनता ही शेष रहती है या अधिकता को प्राप्त होती है।३२*३॥
जो मनुष्य तपश्चरण और समीचीन शास्त्रविशेषों के अध्ययन के क्रम से आगम के आश्रित है वह पात्र माना गया है जो अनेक प्रकार का है ॥ ३३॥
जो जैन धर्म का धारक है वह चाहे गृहस्थ हो अथवा मुनि हो, समयानुसार उसके प्राप्त होनेपर सम्यग्दृष्टियों को उसकी पूजा करनी चाहिये ।। ३३* १ ॥
जो ज्योतिःशास्त्र, मंत्रशास्त्र, और निमित्तशास्त्र का ज्ञाता है, करने योग्य कार्यों में अतिशय चतुर है तथा परोक्ष पदार्थों का समर्थक है - उनके विषय में आस्था रखता है - उसका श्रावकों को भली भाँति सन्मान करना चाहिये ॥ ३३*२ ॥
___ उपर्युक्त ज्योतिषशास्त्र आदिके मर्मज्ञोंका यदि सन्मान नहीं किया जायेगा तो प्रायः उनका अस्तित्व ही असंभव हो जायेगा । और जब उनका अस्तित्व ही न रहेगा तब उनके विना (जिनदीक्षा, तीर्थयात्रा और प्रतिष्ठा आदि जैसे ) शुभ कार्य कैसे संपन्न हो सकेंगे? यदि कदाचित् अन्य मतानुयायी ज्योतिषशास्त्रादि के ज्ञाताओं से उनके संबन्ध में पूछा जाय तो वैसी अवस्था में जैनधर्म की उन्नति कैसे हो सकती है ? ( अतएव जैनशासन भक्तों को उनका सन्मान करना ही चाहिये) ॥ ३३*३ ॥ wrrrrrrrrrrrrrrror
३३*२) 1 श्रावकैः. 2 यजैनदर्शनमाश्रितं ते ज्योतिरिव द्योभिः पूज्याः परोक्षार्थदर्शनात् । ३३.३) 1 ज्योतिःशास्त्रं विना. 2 दीक्षायात्रार्थम ।